शनिवार, 11 दिसंबर 2010

कला में पैठ और कलात्मक बलात्कार

डॉ.लाल रत्नाकर

अब आमजन और खास जन की कला का भेद बहुत साफ तौर पर नज़र आने लगा है, आमजन की कला में व्यवसयिकता ने कला नियमों व मान्यताओ की सारी सीमाओं का उल्लंघन कर दिया है यदि कुछ भी साफ सुथरा कहीं हो सकता है तो वह है बाज़ार से सुदूर गाँव के वे लोग जिन्हें आज की व्यवसयिकता ने अभी अपने आगोश में नहीं लिया है.क्योंकि बाजार का विकृत रूप वहां नहीं पहुंचा है। जब जब कला पर विचार की बात आती है तो हमारे सामने  और कला समाज के सामने वही गिने चुने नामचीन लोग जिन्हें न जीवन की और न ही रचना की तकनीक का कोई ज्ञान है परंतु उन्हें उनकी जानकारी ही बड़ी लगती है.  तकनीक तो तब भी थी जब कला सामग्री के लिए कलाकार प्रकृति के अवदानों पर आश्रित था। पर तब और अब में फर्क इतना ही हुआ है की तब रचना के मायने देशज प्रक्रिया के थे पर अब तो वैश्विक सरोकार खड़े है, कला पहचानी ही जाती है अपनी देशज मान्यताओं, प्रतीकों, तकनीकियो (विधियों) से 'न' की नकली मृग्मरिचिकाओं से।आज का बौद्धिक समाज जितने गूढ़ संसर्गों के साथ कला पर काबिज होने का दंभ भर रहा है वह मूलतः कलात्मक प्रवृतियो पर ही नहीं पुरे उस समाज पर हमला है जिसे वह विस्थापित करना चाहता है, जबकि पहले ऐसा नहीं था। साथ ही साथ एक बड़ी साजिश के साथ भी इसमे बाज़ार कम सामाजिक व्यभिचार ज्यादा ही है. यद्यपि व्यभिचार अटपटा लग सकता है पर यदि इस पर विचार किया जाय तो स्पष्ट रूप से यह स्थितियां नज़र आएँगी यहाँ हमारी यही कोशिश है कि साफ और स्पष्ट तौर पर इस अवधारणा पर बात की जाये ;-

आजादी के बाद विविध क्षेत्रों में विकास की जो अवधारणाएं बनाई गयीं और उसमें जो फौज आई वे कौन थे। इन तमाम कला आन्दोलनों के लिए या उनके विकास के लिए, जिनमे अनेकों संस्थाए खड़ी की गयी उनके उद्येश्य अवश्य पवित्र रहे होंगे, जिनके मन में ये विचार आये होंगे की हमें साहित्य संगीत और ललित कलाओं के उत्थान पर काम करना है. पर हुआ क्या और आज क्या हो रहा है. यही कारण था की इनके विकास के लिए अकादमियां स्थापित की गयी थी, जिसमे यहाँ हम विशेष सन्दर्भ ले रहे है ललित कला अकादमी नई दिल्ली का. आंकणों का लेखा जोखा निकाला जाय तो यह बात प्रकाश में आती है कि कला को बढ़ाने की बजाय अपनो अपनों को बढ़ाने की प्रवृति ने पूरे कला जगत में एक वह वर्ग खड़ा कर दिया जो केवल और केवल किसी न किसी दबाव या प्रभावशाली लोगों के समीकरण पर कड़ी हुयी, यद्यपि यह दृष्टि मेरी ही नहीं कई बड़े और कुशल कलाकारों की भी है जिनका मानना है की वहां कला और कलाकार की पूंछ नहीं होती ग्रुप की होती है, यथा बदौड़ा तो बड़ोदा कोलकाता तो कोलकाता पंजाबी तो पंजाबी पर इनके बीच जो सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व होता है वह है 'ब्राह्मण' कलाकार है या नहीं यदि ब्रह्मण है तो चलेगा, जिसका अब इतना असर हो गया है की यदि आप इसके खिलाफ आवाज़ उठाते है तो आप को कला विरोधी और अ कलाकार घोषित कर दिया जायेगा. विरोध के स्वर कई बार उठे पर सारी सामाजिक इकाइयों की तरह इस विरोध का नेतृत्व भी अंततः ब्राहमण ले लेता है और धीरे धीरे सारी लड़ाई/ विरोध ही बंद हो जाता है.

यहाँ यह सवाल उठाना बेमानी ही होगा की देशज कलाकारों की क्या गति हुई फिर जवाब की लड़ी राष्ट्रीय कला संग्रहालय आधुनिक कला संग्रहालय इतना ही नहीं क्राफ्ट म्यूजियम आदि आदि. कुल मिलकर इतना घाल-मेल की पूरी अवाम इसी में गोते खाती रही और कला की कलाकारी उनसे चलती रहे आज इस पूरे प्रोसेस में वास्तविक कलाकार की जगह कहाँ है खोजनी पड़ेगी पर इसकी खोज के लिए भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय निरंतर काम कर रहा है पर आज तक उसकी तलास कहाँ पहुंची है यह एक अलग शोध का सवाल है .

दूसरी ओर विविध प्रकार के कला संस्थान और उनके प्राध्यापक जिन पर बड़ी जिम्मेदारी थी कला के विकास की पर इन्होने राष्ट्रीय धारा का सहारा लिया और बड़ी सिद्दत से कला उत्थान में जम गए "मुझे याद है एक बार मेरे एक मित्र ने कला पर एक आलेख खासकर जिस विश्वविद्यालय में हम लोग है पर लिखने का आग्रह किये मै बड़े उत्साह में बगैर भेदभाव के लिख दिया 'वहां के कला विषय की कुशलता पाठ्यक्रम की सारगर्भिता गौरवपूर्ण पारदर्शिता ५५ वर्षों का कला उत्थान गलती से या व्यस्तातावश बगैर उनकी सम्पादकीय कुतर छांट के छप गया .छपने की प्रक्रिया में कई त्रुटियाँ अलग तरह की थी जो अशोभनीय थीं पर काफी दिनों बाद मेरे मित्र की शिकायत थी वह कोई लेख था वह, वह तो पत्रकार जैसी रिपोर्टिंग थी जबकि वहीँ पर उनके आलेखों में प्रशंसा के आलावा सच का कहीं नामों निशान नहीं कमोवेश यही हाल कलाओं के शोध लेखन एवं उनकी तकनीकियों के मामले में दिखाई देता है.

कई एसे साहित्य कला पर पुस्तकाकार रूप में आये है जिनमे इतनी गलत जानकारियां है, इतने अशोभनीय और सिद्धान्तहीन रेखांकन है जिनका सरासर अनुकरण पूरे परिक्षेत्र में चल रहा है, एक विदुषी तो येसी भी है जिनको कला न तो विरासत में मिली और न ही कला का कोई अध्ययन जिसका कोई लेना देना नहीं है पर देश का हर आदमी उस कला को लेकर बहस पर बहस किये जा रहा है, जहाँ कला नदारद है और साहित्य ने सारा ठेका लेकर गुणगान किये जा रहा है की नग्नता नहीं है, कला में कुछ भी नंगा नहीं होता, निर्वस्त्रता तो कला को उन्नत करती है, यह भी अजीबो गरीब कहानी है जहाँ न अनुपात है और न ही शारीर सौष्ठव पूरा का पूरा साम्राज्य नक़ल की पराकाष्ठा को पार कर रहा है जहाँ शुद्ध रूप से जातीय अहंकार और उसकी प्रशंशा की गयी है क्योंकि जितने वाह वाह हुए है उसमे कहीं कला की समझ नज़र नहीं आती है .

दुनिया भर में कला संग्रहालय है उनमे जिनकी कलाएं है उनकी चर्चा होती है आजकल वही चलन हिंदुस्तान में भी हो गया है पर उनकी कलाओ का कोई लेखा जोखा उनकी गुणवत्ता से नहीं है जिनके कारन वह संगृहीत की जानी चाहिए वह नहीं है जो संग्रहित है उनका स्थान हमारी योग्यताओं तथा तिकड़म की बौद्धिकताओ पर आधारित है (एसा भी नहीं की जो वाजिब कृतियाँ है उनका संग्रहण नहीं है पर जब कला दर्शक तमाम रचनाओं से आगे बढ़ जाता है), यथा कलादीर्घा में कला की जगह एक वर्ग ने बना ली है जिसका खामियाजा यह हो रहा है की पूरे संग्रहालय उन्ही को तब्बज्जो दे रहे है जो उनके इर्द-गिर्द घूम रहे हैं, एसी स्थिति में कलाएं कम और तिकड़म ज्यादा प्रभावी हो रहे है. यदि इनकी यही गति रही तो ये संग्रहालय जनता के लिए न होकर खासजनो के आय के श्रोत के लिए ही रह जायेंगे. 


(क्रमशः)

गुरुवार, 20 मई 2010

लोककला

लोककला व संस्कृति के संवाहक पत्थर के कोल्हू
डाॅ.लाल रत्नाकर
यद्यपि लोक की कलाओं के इतिहास में जाएं तो हम सदियों सदियों के अन्तराल को भी कमतर पायेंगे मानव के उद्भव से ही ये कलाएं भी सहज ही उत्पन्न हो गयी होंगी, क्योंकि आदिम कला का इतिहास आज भी जिस रूप में हमारे सम्मुख है उसका स्वरूप किसी भी तरह बदला नहीं है और यही कारण है कि लोक कलाएं भी अपने स्वरूप को बदल नहीं पाती हैं जैसे ही इनका स्वरूप बदलता है वैसे ही इनकी पहचान समाप्त होने लगती है। समय की विडम्बना है कि जो कल महत्वपूर्ण था वह आज उतना महत्व नहीं रखता, पर लोक का विश्वास इससे परे परम्पराओं को लेकर चलने का है उन्हीं को सजाने संवारने और निरन्तरता को बनाए रखने में ही अपना उत्थान मानता रहा है। यही कारण है कि ये कलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं और लोक को अपने में पिरोए दूर तक ले जाती हैं, यही कारण है कि इन्हें परम्परागत कह कह कर उपेक्षित किया जाता रहा है।
पर इन्हीं कलाओं में मधुबनी, वार्ली, पटचित्रण, कलमकारी, गोंड, रंगोली, फड़, बाटिक, अल्पना, जादोपटिया, पिछवई, पिथोरा आदि कलाएं तो हैं ही साथ ही लोकगीतों की विस्तृत परम्परा भी है। 
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत की लोक कलाएं अपने विविध रूपों में फैली हुई हैं, जिनमें मेंहदी, महावर, गोदना और मुखौटों का प्रमुख स्थान है। इन्हीं कलाओं के रूप में लोक लिबास, पहनावे, आभूषणों की भी विविध परिपाटी देश के विभिन्न कोनों में नजर आ ही जाती है। इनके अलावा लोकरंग के सुन्दर रूप लोक वास्तु में भी दिखाई देते हैं, यथा मड़ई की विस्तृत रूप भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग तरह के नजर आते हैं, यहीं पर कच्चे मकान और उनमें प्रयुक्त होने वाले नाना प्रकार के अवयव लोक की विरासत के रूप मे अपना स्थान बनाते हैं। जबकि पूरे देश में फैले ‘काष्ठ’ के कलात्मक कार्य उसी लोक काष्ठ कलाकारों की देन हैं जो अपनी स्थानीयता को संजोए कईबार उन्नत कला के ग्रास बन जाते हैं। इसी क्रम में हमें घरेलू सामग्रियों को नहीं छोड़ना चाहिए जिनमें लोक कलाएं प्रमुखता से अपनी जगह बनाती हैं चूल्हे चैके से लेकर कठौता, मथानी, मचिया, खटिया, नक्कासीदार आलमारियाॅं पलंग, खम्भे, घोडि़या, दरवाजे और पूजा से जुड़े सामानों में रेहल, चैकी व मन्दिर भी लोक में प्रायः नजर आते हैं। इनका निर्माण स्थानीय लोककला का रचनाकार लोक का परम्परागत स्वरूप ही उनकी रचनाओं में दिखता है।
उक्त विस्तार को विराम देते हुए हम इसी तरह की कलाओं में पत्थर व लकड़ी के वो काम जो बहुत ही महत्व के हैं,  जिनमें लोक कलाओं के मोटिफ एवं प्रतीक भरे पड़े हैं, जो पूरे देश में किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं जिनमें लोककला की परम्परा ही दिखती है। जिनका स्वतंत्र रूप से विवेचन किया जाना है, समय और विषय को प्रभावशाली बनाने हेतु यहाॅं पर पत्थर के कोल्हू के उत्कीर्णन का काम दर्शनीय है। 
लकड़ी का दरवाज़ा इस पर भी वही प्रतीक हैं जो पत्थरों में 
उत्तर प्रदेश के पूरे पूर्वंाचल वाराणसी, मिर्जापुर, जौनपुर, आजमगढ़, गोरखपुर, फैजाबाद, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ आदि में फैले या बिखरे पत्थर के कोल्हू जहां किसी जमाने के सम्पन्नता और कृषि की उन्नतता के प्रतिबिम्ब के प्रतीक थे वहीं वह विलक्षण कला धरोहर के साथ साथ सांस्कृतिक, धार्मिक सामाजिक एवं श्रृंगारिक सभ्यता के सम्वाहक के रूप में गुजरे हुए कल के गवाह के रूप में विरान पड़े हैं, इन पर अंकित प्रतीक व रूप हमारे कौशल का जो इतिहास बयां कर रहे हैं वह दुनिया के लोककला के पटल पर यदि अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें तो अद्वितीय धरोहर होंगे दुर्भाग्यवश ये अमूल्य निधि सरकारी लापरवाही और संरक्षण की उपेक्षा व अभाव के कारण कहीं नष्ट न हो जाएं। अविभाजित उत्तर प्रदेश के उस जमाने के कला एवं सांस्कृतिक कार्य निदेषक से लेखक अपने शोध निर्देशक प्रो0 आनन्द कृष्ण के साथ मिलकर यह आग्रह किया था कि इन लोककलाओं की अमूल्य धरोहर की रक्षा के लिए कुछ करिऐ पर बात आई गयी हो गयी, तब से अब तक तो लम्बा समय गुजर गया है।
पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
अब हम आते हैं इन्ही कोल्हुओं के बारे में विस्तार से बात करने के लिए क्योंकि इनका सम्बन्ध लोक के बहुउद्ेशीय कला स्वरूपों से जुड़ा हुआ है, जहाॅ एक ओर ये उपयोगी यन्त्र के रूप में प्रयुक्त होते हैं वहीं इनका धार्मिक, सामाजिक, श्रृंगारिक, शैक्षिक व प्रतीकात्मक अवयवों को समेटे हुये हैं वहीं तांत्रिक और आध्यात्मिक मूल्यों का भी समावेश भी है इनमें।

पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
इन कोल्हुओं का निर्माण कालान्तर से कृषि उपयोग में किया जाता रहा है अतः लोक में प्रचलित हर प्रकार की वस्तुएं अलंकृत किए जाने की परंम्परा प्राचीन काल से ही हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है। मिट्टी की भीत हो या गोबर के भिठहुर हो लकड़ी की सामग्री, कपड़ों पर अलंकरण, कढ़ाई बुनाई यथा पंखे थैले, जूट और सरपत के अलंकृत पात्र यथा कुरूई, मौनी, भौकी, पेटारी, पेटारा या कोहबर, चैक, अल्पना या विभिन्न त्योहारों एवं मंागलिक अवसरों बनाये जाने वाले नाना प्रकार ‘लोक कला’ के रूप जो परम्परा से चले आ रहे थे जो आज औद्योगिक हमलों और बाजारवाद के भेंट चढ़ गए। उक्त प्रकार के पत्थर के कोल्हू यद्यपि गन्ने की पेराई के उपयोग में लाये जाते थे, जिनका निर्माण काल क्या है ठीक ठीक ज्ञात नहीं हो पाता परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही कोल्हू के इस रूप का चलन हमारे षास्त्रों में उल्लिखित है। जबकि इसी प्रकार के कोल्हू का प्रयोग तिलहन पदार्थाें से तेल निकालने के हेतू भी किया जाता है यद्यपि यह कोल्हू काष्ठ निर्मित होते हैं।
हाथी के विविध रूपों मंे एकरूपता के नाम पर उसकी संरचनागत विशिष्टता के साथ साथ रचनाकार की मौलिकता का प्रदर्षन सभी चित्रों में बना रहता है।
पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
पत्थर का कोल्हू टुटा हुआ 
 इन आकृतियों में हाथी का अलंकरण जिसको स्थानीय लोगों द्वारा श्रृंगार व झोल डालकर तैयार किया जाता है जिसे भिन्न नामों से पुकारा जाता है इनके अलावा इनके हौदों को भी बखूबी बनाया गया है हौदों के आकार भी भिन्न-भिन्न हैं झोल व श्रृंगार भी विविध रूपों में बनाए गये है, हथसवारों के अतिरिक्त इनके पिलवान हाथी के सिर और पीठ के बीच लगभग गले के उपर बैठाये दिखाए गए हैं जहां हथसवार के हाथ में हुक्का या पंख्ेा के आकार की आकृतियां अंकित हैं वहीं सईस के हाथ में भालानुमा अस्त्र भी दिखाया गया है, हथसवार को मेहराब की आकृति में अंकित किया गया है। इन आकृतियों को उकेरने हेतु जिन औजारों का प्रयोग कलाकार करते थे उन्हें वे स्वंय तैयार करते थे ज्यादातर ये लाल बलुए पत्थरों मंे बनाए गए हैं। 
अगरौरा जौनपुर के कोल्हू में हथसवार के ठीक पहले गणेश जी की आकृति एक मेहराब में दिखाई गयी है ये चार हाथ वाले गणेश जी है जिनके हर हाथ में कुछ न कुछ दिखाया गया है। एक हाथ में वाद्य यंत्र दूसरे में मोदक तीसरे और चैथे में माला या पंखा के आकार की आकृतियां निरूपित की गयी हैं। सिर पर पहाड़ के आकार मुकुट बनाया गया है गले में माला की आकृति बनाई गयी है और जिस आसन पर वह बैठे हैं उसे इस तरह का बनाया गया है जो हाथी के समान दिखाई दे रहा है।
नाना प्रकार की आकृतियों से अलंकृत ये कोल्हू अपने में एक लोक का सांस्कृतिक इतिहास समेटे हुए है, परन्तु रख-रखाव की अव्यवस्था के चलते इनके नष्ट होने के हालात निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह की अव्यवस्था के अनेक कारण हैं जिसमें आबादी की बेतहासा बृद्वि भी है जिसके कारण इसे या तो नींव में छुपा दिया जा रहा है या तोड़कर इसके टुकड़े बना दिये जा रहे हैं। वैसे तो नाना प्रकार ‘लोक कला’ के रूप जो परम्परा से चले आ रहे थे उनके संरक्षण एवं संकलन की महती आवश्यकता प्रतीत होती है, परन्तु उक्त प्रकार के कोल्हुओं का संरक्षण एक मुश्किल काम भी है क्योंकि इनकी लम्बाई मोटाई और भार इतना अध्कि है कि बिना अभियांत्रिक मदद के सम्भव नहीं हो सकेगा । 
अतः यदि हमें इस अमूल्य धरोहर को बचाना है तो इसके लिए समुचित माध्यमों से इस लोक कला के संरक्षण की गुहार लगानी पड़ेगी यदि समय रहते इनकी संरक्षा न हुयी तो यह लोक और लोककला की अमूल्य थाती लुप्तप्राय हो जायेगी। 

डाॅ.लाल रत्नाकर
रीडर व अध्यक्ष, चित्रकला विभाग, 
एम0 एम0 एच0 कालेज, गाजियाबाद-201001

M.F. Husain






M.F. Husain

Born at Pandharpur, Maharashtra, India on September 17, 1915, he had become a photogenic icon, and the newspapers loved him. The stuffy Calcutta Club was pilloried when it refused admission to a barefoot Husain on the grounds that he violated their dress code.

He was nominated to the upper house of the Indian Parliament, the Rajya Sabha in 1987; and during his 6 year term he produced the Sansad Portfolio.

In 1966 Husain was awarded the Padmashree by the Government of India. In the following year he made his first film, Through the Eyes of a Painter. It was shown at the Berlin Festival and won a Golden Bear.

India's most controversial and most loved M. F. Husain is one of the few artists who enjoy multifarious range of occupations interests and passions. His love for Indian music, movies, jewelry, tapestries, photography and literature is well known. Besides being one of the most popular Indian painter, he has made international award winning films and created beautiful designs in tapestry, jewelry and toys. His autobiography "Pendhapur ka ek Ladka" is a master piece written in Hindi.

सम्मान परस्पर होता है न...

परिवर्तन प्रकृति है। परिवर्तन ही हमें भौतिक और आत्मिक दोनों स्तरों से जीवन को समझने का अवसर देता है। प्रकृति की इस शिक्षा के बगैर हम उस दहलीज तक नहीं पहुंच सकते थे, जहां से हम चाहें तो उस पार उतर सकते हैं। उस पार जहां से चेतना का एक और विकसित स्तर शुरू होता है। यह बात किसी धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेश का अंश नहीं... यह प्रकृति का संदेश है, महसूस करें। परिवर्तन ही हमें यह भी संदेश देता है कि सुधरने, सुधारने और उस अनुरूप आचरण नहीं करने का हठ प्रकृति को खुद बदलाव के लिए विवश करता है और तब मनुष्य, या समाज, देश या धर्म किसी को भी उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। हमें व्यक्तिगत नजरिए से भी और समग्रता से भी इस दृष्टिकोण से जीवन को देखना चाहिए। आप अपने आसपास हुई दो घटनाओं पर ध्यान दें। पाकिस्तान के पेशावर इलाके में सिख युवक का सिर कलम किए जाने की घटना और मकबूल फिदा हुसैन की देश में सम्मानजनक वापसी के लिए उठ रही तमाम ‘मानवीय’ मांगें। सिख युवकों को पाकिस्तानी तालिबानों ने अगवा कर यह दबाव डाला कि वे सिख धर्म त्याग कर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लें। इस आपराधिक दबाव के आगे झुकने से सिखों ने इनकार कर दिया और बदले में तालिबानों ने उनमें से एक का सिर काट कर उसे गुरुद्वारे में पहुंचा दिया। यह पाकिस्तान में लगातार हो रहा है और वहां रहने वाले हिंदुओं, सिखों या अन्य अल्पसंख्यकों को भीषण त्रासदी से गुजरना पड़ रहा है। तालिबानों के हाथों शहीद हुए सिख युवक जसपाल सिंह ने मां से वादा किया था कि वह उन्हें स्वर्ण मंदिर के दर्शन कराने जरूर ले जाएगा और इस यात्रा के लिए उसने वीज़ा वगैरह लेने की औपचारिकताएं पूरी भी कर रखी थीं। लेकिन धार्मिक-अहमकता में भावुकता को कोई जगह नहीं मिल पाती और जसपाल जैसों की जान चली जाती है।

दूसरी तरफ हैं हिंदू देवियों का असम्मान रचने वाले स्वघोषित ‘देशनिकाले’ पर विदेश भागे कलाकार मकबूल फिदा हुसैन। बारूदखाने में चिंगारी लगा कर यह ‘भारतीय’ कलाकार कतर की गलियों में गायब हो गया। ऐसे व्यक्ति की सम्मानजनक वापसी के लिए आडंबरियों की तरफ से मांगें उठ रही हैं, यह भारत की अजीबोगरीब विडंबना है। नैतिकता का एक ही तकाजा होना चाहिए। डेनमार्क की एक पत्रिका में एक कार्टून छप जाता है तो दुनियाभर के मुसलमान इसे पैगम्बर मोहम्मद की तौहीन समझ कर विरोध प्रदर्शनों का तांता लगा देते हैं और मौलानाओं की तरफ से पत्रिका के कार्टूनिस्ट कर्ट वेस्टरगार्ड का सिर कलम करने के फतवों की झड़ी लगा देते हैं। ऐसे ही फतवे हिंदू देवियों को असम्मानित करने वाली रेखांकृतियां बनाने वाले काफिर मकबूल फिदा हुसैन के खिलाफ क्यों नहीं जारी हुए? धार्मिक भावनाओं के असम्मान से नाराज होने वाले इस्लाम के धर्मगुरु हिंदू देवी-देवताओं के असम्मान से नाराज क्यों नहीं होते और फतवा क्यों नहीं जारी करते? डेनमार्क की पत्रिका में छपे कार्टून पर भारत में उग्रता फैलाने में लगे रहे मौलानाओं का मकबूल फिदा हुसैन के नापाक कृत्यों की ओर कभी ध्यान नहीं गया। हुसैन पर यह शातिराना चुप्पी क्यों? धर्मगुरु चाहे हिंदू हों या मुस्लिम, उन्हें इस नैतिकता का एहसास तो होना ही चाहिए कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी धर्म का असम्मान करने का हक नहीं। जिस भी व्यक्ति, समाज या धर्म ने दोयम चरित्र अपनाया, आप समझ लें उसका सम्मान जल्दी ही धराशाई होने वाला है भौतिक रूप से भी और आत्मिक या आध्यात्मिक रूप से भी। किसी की भी धार्मिक भावना का अपमान निंदनीय है... तब और ज्यादा जब एक मसले पर समवेत सियाल-स्वर जाग्रत हों और दूसरे के मसले पर कुटिल मुस्कुराहटों भरी चुप्पी। कोई भी धर्म हमें किसी को आहत करने की इजाजत नहीं देता। और अगर देता है तो यह हमारा ही पुनीत कर्तव्य है कि हम उसमें समय रहते संशोधन कर लें... अन्यथा प्रकृति परिवर्तन का अपना रास्ता अख्तियार कर ही लेगी। यह स्वयंभू संत श्रीश्री रविशंकर जैसों को भी समय रहते समझना चाहिए, जो सर्व-स्वीकार्य ‘ईश-जन’ होने के चक्कर में मकबूल फिदा हुसैन की तरफदारी कर रहे हैं। मकबूल फिदा जरूर आएं हिंदुस्तान, पर उन्हें अपने कृत्यों के लिए भारतीयों से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगनी ही होगी। डैनिश कार्टूनिस्ट कर्ट वेस्टरगार्ड को घटना के बाद अब तक छुप कर रहना पड़ रहा है। मकबूल फिदा हुसैन जैसे लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आनी चाहिए। सम्मान और प्रतिष्ठा का मसला परस्पर होता है न...

जब बामियान में तालीबान बुद्ध की प्रतिमाएं बमों से उड़ा रहे थे, बौद्ध विद्वान डॉ. धम्मानंद ने कहा था, ‘अफगानिस्तान में जो बुद्ध की प्रतिमाएं नष्ट कर रहे हैं, उस पर हम नाराज क्यों हों? यह उनकी परेशानी है कि वे इतने ही निरे मूर्ख हैं कि इतिहास और धार्मिक आस्था की बात तो छोड़िए, पत्थर की खूबसूरत नायाब मूर्तियों को तोड़ कर बदसूरती का मलबा बिखेर रहे हैं। इसी तरह हिंदू देवी की नंगी तस्वीरें बना कर फिदा हुसैन हिंदू संस्कृति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। हुसैन जैसे लोगों को यह बात क्यों नहीं समझ आती कि वे क्या सरस्वती और भारत माता की तरह अपनी मां, बहन या पत्नी की तस्वीरें बना कर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकते हैं? हुसैन इसका जवाब हां में दे सकते हैं... लेकिन इससे सस्ती और ओछी बात और क्या हो सकती है।’

यदि हम अपना सम्मान करते हैं तो प्रकृति के एक-एक सृजन का सम्मान करना हमारा दायित्व है। अन्यथा प्रकृति खुद ब खुद परिवर्तन का चक्र चला कर असम्मानितों का सम्मान स्थापित कर देती है...

(Published in By-Line National News Weekly (Hindi and English) March 20, 2010 Issue under – सम्पादकीय)