गुरुवार, 20 मई 2010

सम्मान परस्पर होता है न...

परिवर्तन प्रकृति है। परिवर्तन ही हमें भौतिक और आत्मिक दोनों स्तरों से जीवन को समझने का अवसर देता है। प्रकृति की इस शिक्षा के बगैर हम उस दहलीज तक नहीं पहुंच सकते थे, जहां से हम चाहें तो उस पार उतर सकते हैं। उस पार जहां से चेतना का एक और विकसित स्तर शुरू होता है। यह बात किसी धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेश का अंश नहीं... यह प्रकृति का संदेश है, महसूस करें। परिवर्तन ही हमें यह भी संदेश देता है कि सुधरने, सुधारने और उस अनुरूप आचरण नहीं करने का हठ प्रकृति को खुद बदलाव के लिए विवश करता है और तब मनुष्य, या समाज, देश या धर्म किसी को भी उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। हमें व्यक्तिगत नजरिए से भी और समग्रता से भी इस दृष्टिकोण से जीवन को देखना चाहिए। आप अपने आसपास हुई दो घटनाओं पर ध्यान दें। पाकिस्तान के पेशावर इलाके में सिख युवक का सिर कलम किए जाने की घटना और मकबूल फिदा हुसैन की देश में सम्मानजनक वापसी के लिए उठ रही तमाम ‘मानवीय’ मांगें। सिख युवकों को पाकिस्तानी तालिबानों ने अगवा कर यह दबाव डाला कि वे सिख धर्म त्याग कर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लें। इस आपराधिक दबाव के आगे झुकने से सिखों ने इनकार कर दिया और बदले में तालिबानों ने उनमें से एक का सिर काट कर उसे गुरुद्वारे में पहुंचा दिया। यह पाकिस्तान में लगातार हो रहा है और वहां रहने वाले हिंदुओं, सिखों या अन्य अल्पसंख्यकों को भीषण त्रासदी से गुजरना पड़ रहा है। तालिबानों के हाथों शहीद हुए सिख युवक जसपाल सिंह ने मां से वादा किया था कि वह उन्हें स्वर्ण मंदिर के दर्शन कराने जरूर ले जाएगा और इस यात्रा के लिए उसने वीज़ा वगैरह लेने की औपचारिकताएं पूरी भी कर रखी थीं। लेकिन धार्मिक-अहमकता में भावुकता को कोई जगह नहीं मिल पाती और जसपाल जैसों की जान चली जाती है।

दूसरी तरफ हैं हिंदू देवियों का असम्मान रचने वाले स्वघोषित ‘देशनिकाले’ पर विदेश भागे कलाकार मकबूल फिदा हुसैन। बारूदखाने में चिंगारी लगा कर यह ‘भारतीय’ कलाकार कतर की गलियों में गायब हो गया। ऐसे व्यक्ति की सम्मानजनक वापसी के लिए आडंबरियों की तरफ से मांगें उठ रही हैं, यह भारत की अजीबोगरीब विडंबना है। नैतिकता का एक ही तकाजा होना चाहिए। डेनमार्क की एक पत्रिका में एक कार्टून छप जाता है तो दुनियाभर के मुसलमान इसे पैगम्बर मोहम्मद की तौहीन समझ कर विरोध प्रदर्शनों का तांता लगा देते हैं और मौलानाओं की तरफ से पत्रिका के कार्टूनिस्ट कर्ट वेस्टरगार्ड का सिर कलम करने के फतवों की झड़ी लगा देते हैं। ऐसे ही फतवे हिंदू देवियों को असम्मानित करने वाली रेखांकृतियां बनाने वाले काफिर मकबूल फिदा हुसैन के खिलाफ क्यों नहीं जारी हुए? धार्मिक भावनाओं के असम्मान से नाराज होने वाले इस्लाम के धर्मगुरु हिंदू देवी-देवताओं के असम्मान से नाराज क्यों नहीं होते और फतवा क्यों नहीं जारी करते? डेनमार्क की पत्रिका में छपे कार्टून पर भारत में उग्रता फैलाने में लगे रहे मौलानाओं का मकबूल फिदा हुसैन के नापाक कृत्यों की ओर कभी ध्यान नहीं गया। हुसैन पर यह शातिराना चुप्पी क्यों? धर्मगुरु चाहे हिंदू हों या मुस्लिम, उन्हें इस नैतिकता का एहसास तो होना ही चाहिए कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी धर्म का असम्मान करने का हक नहीं। जिस भी व्यक्ति, समाज या धर्म ने दोयम चरित्र अपनाया, आप समझ लें उसका सम्मान जल्दी ही धराशाई होने वाला है भौतिक रूप से भी और आत्मिक या आध्यात्मिक रूप से भी। किसी की भी धार्मिक भावना का अपमान निंदनीय है... तब और ज्यादा जब एक मसले पर समवेत सियाल-स्वर जाग्रत हों और दूसरे के मसले पर कुटिल मुस्कुराहटों भरी चुप्पी। कोई भी धर्म हमें किसी को आहत करने की इजाजत नहीं देता। और अगर देता है तो यह हमारा ही पुनीत कर्तव्य है कि हम उसमें समय रहते संशोधन कर लें... अन्यथा प्रकृति परिवर्तन का अपना रास्ता अख्तियार कर ही लेगी। यह स्वयंभू संत श्रीश्री रविशंकर जैसों को भी समय रहते समझना चाहिए, जो सर्व-स्वीकार्य ‘ईश-जन’ होने के चक्कर में मकबूल फिदा हुसैन की तरफदारी कर रहे हैं। मकबूल फिदा जरूर आएं हिंदुस्तान, पर उन्हें अपने कृत्यों के लिए भारतीयों से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगनी ही होगी। डैनिश कार्टूनिस्ट कर्ट वेस्टरगार्ड को घटना के बाद अब तक छुप कर रहना पड़ रहा है। मकबूल फिदा हुसैन जैसे लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आनी चाहिए। सम्मान और प्रतिष्ठा का मसला परस्पर होता है न...

जब बामियान में तालीबान बुद्ध की प्रतिमाएं बमों से उड़ा रहे थे, बौद्ध विद्वान डॉ. धम्मानंद ने कहा था, ‘अफगानिस्तान में जो बुद्ध की प्रतिमाएं नष्ट कर रहे हैं, उस पर हम नाराज क्यों हों? यह उनकी परेशानी है कि वे इतने ही निरे मूर्ख हैं कि इतिहास और धार्मिक आस्था की बात तो छोड़िए, पत्थर की खूबसूरत नायाब मूर्तियों को तोड़ कर बदसूरती का मलबा बिखेर रहे हैं। इसी तरह हिंदू देवी की नंगी तस्वीरें बना कर फिदा हुसैन हिंदू संस्कृति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। हुसैन जैसे लोगों को यह बात क्यों नहीं समझ आती कि वे क्या सरस्वती और भारत माता की तरह अपनी मां, बहन या पत्नी की तस्वीरें बना कर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकते हैं? हुसैन इसका जवाब हां में दे सकते हैं... लेकिन इससे सस्ती और ओछी बात और क्या हो सकती है।’

यदि हम अपना सम्मान करते हैं तो प्रकृति के एक-एक सृजन का सम्मान करना हमारा दायित्व है। अन्यथा प्रकृति खुद ब खुद परिवर्तन का चक्र चला कर असम्मानितों का सम्मान स्थापित कर देती है...

(Published in By-Line National News Weekly (Hindi and English) March 20, 2010 Issue under – सम्पादकीय)

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