गुरुवार, 20 मई 2010

लोककला

लोककला व संस्कृति के संवाहक पत्थर के कोल्हू
डाॅ.लाल रत्नाकर
यद्यपि लोक की कलाओं के इतिहास में जाएं तो हम सदियों सदियों के अन्तराल को भी कमतर पायेंगे मानव के उद्भव से ही ये कलाएं भी सहज ही उत्पन्न हो गयी होंगी, क्योंकि आदिम कला का इतिहास आज भी जिस रूप में हमारे सम्मुख है उसका स्वरूप किसी भी तरह बदला नहीं है और यही कारण है कि लोक कलाएं भी अपने स्वरूप को बदल नहीं पाती हैं जैसे ही इनका स्वरूप बदलता है वैसे ही इनकी पहचान समाप्त होने लगती है। समय की विडम्बना है कि जो कल महत्वपूर्ण था वह आज उतना महत्व नहीं रखता, पर लोक का विश्वास इससे परे परम्पराओं को लेकर चलने का है उन्हीं को सजाने संवारने और निरन्तरता को बनाए रखने में ही अपना उत्थान मानता रहा है। यही कारण है कि ये कलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं और लोक को अपने में पिरोए दूर तक ले जाती हैं, यही कारण है कि इन्हें परम्परागत कह कह कर उपेक्षित किया जाता रहा है।
पर इन्हीं कलाओं में मधुबनी, वार्ली, पटचित्रण, कलमकारी, गोंड, रंगोली, फड़, बाटिक, अल्पना, जादोपटिया, पिछवई, पिथोरा आदि कलाएं तो हैं ही साथ ही लोकगीतों की विस्तृत परम्परा भी है। 
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत की लोक कलाएं अपने विविध रूपों में फैली हुई हैं, जिनमें मेंहदी, महावर, गोदना और मुखौटों का प्रमुख स्थान है। इन्हीं कलाओं के रूप में लोक लिबास, पहनावे, आभूषणों की भी विविध परिपाटी देश के विभिन्न कोनों में नजर आ ही जाती है। इनके अलावा लोकरंग के सुन्दर रूप लोक वास्तु में भी दिखाई देते हैं, यथा मड़ई की विस्तृत रूप भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग तरह के नजर आते हैं, यहीं पर कच्चे मकान और उनमें प्रयुक्त होने वाले नाना प्रकार के अवयव लोक की विरासत के रूप मे अपना स्थान बनाते हैं। जबकि पूरे देश में फैले ‘काष्ठ’ के कलात्मक कार्य उसी लोक काष्ठ कलाकारों की देन हैं जो अपनी स्थानीयता को संजोए कईबार उन्नत कला के ग्रास बन जाते हैं। इसी क्रम में हमें घरेलू सामग्रियों को नहीं छोड़ना चाहिए जिनमें लोक कलाएं प्रमुखता से अपनी जगह बनाती हैं चूल्हे चैके से लेकर कठौता, मथानी, मचिया, खटिया, नक्कासीदार आलमारियाॅं पलंग, खम्भे, घोडि़या, दरवाजे और पूजा से जुड़े सामानों में रेहल, चैकी व मन्दिर भी लोक में प्रायः नजर आते हैं। इनका निर्माण स्थानीय लोककला का रचनाकार लोक का परम्परागत स्वरूप ही उनकी रचनाओं में दिखता है।
उक्त विस्तार को विराम देते हुए हम इसी तरह की कलाओं में पत्थर व लकड़ी के वो काम जो बहुत ही महत्व के हैं,  जिनमें लोक कलाओं के मोटिफ एवं प्रतीक भरे पड़े हैं, जो पूरे देश में किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं जिनमें लोककला की परम्परा ही दिखती है। जिनका स्वतंत्र रूप से विवेचन किया जाना है, समय और विषय को प्रभावशाली बनाने हेतु यहाॅं पर पत्थर के कोल्हू के उत्कीर्णन का काम दर्शनीय है। 
लकड़ी का दरवाज़ा इस पर भी वही प्रतीक हैं जो पत्थरों में 
उत्तर प्रदेश के पूरे पूर्वंाचल वाराणसी, मिर्जापुर, जौनपुर, आजमगढ़, गोरखपुर, फैजाबाद, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ आदि में फैले या बिखरे पत्थर के कोल्हू जहां किसी जमाने के सम्पन्नता और कृषि की उन्नतता के प्रतिबिम्ब के प्रतीक थे वहीं वह विलक्षण कला धरोहर के साथ साथ सांस्कृतिक, धार्मिक सामाजिक एवं श्रृंगारिक सभ्यता के सम्वाहक के रूप में गुजरे हुए कल के गवाह के रूप में विरान पड़े हैं, इन पर अंकित प्रतीक व रूप हमारे कौशल का जो इतिहास बयां कर रहे हैं वह दुनिया के लोककला के पटल पर यदि अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें तो अद्वितीय धरोहर होंगे दुर्भाग्यवश ये अमूल्य निधि सरकारी लापरवाही और संरक्षण की उपेक्षा व अभाव के कारण कहीं नष्ट न हो जाएं। अविभाजित उत्तर प्रदेश के उस जमाने के कला एवं सांस्कृतिक कार्य निदेषक से लेखक अपने शोध निर्देशक प्रो0 आनन्द कृष्ण के साथ मिलकर यह आग्रह किया था कि इन लोककलाओं की अमूल्य धरोहर की रक्षा के लिए कुछ करिऐ पर बात आई गयी हो गयी, तब से अब तक तो लम्बा समय गुजर गया है।
पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
अब हम आते हैं इन्ही कोल्हुओं के बारे में विस्तार से बात करने के लिए क्योंकि इनका सम्बन्ध लोक के बहुउद्ेशीय कला स्वरूपों से जुड़ा हुआ है, जहाॅ एक ओर ये उपयोगी यन्त्र के रूप में प्रयुक्त होते हैं वहीं इनका धार्मिक, सामाजिक, श्रृंगारिक, शैक्षिक व प्रतीकात्मक अवयवों को समेटे हुये हैं वहीं तांत्रिक और आध्यात्मिक मूल्यों का भी समावेश भी है इनमें।

पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
इन कोल्हुओं का निर्माण कालान्तर से कृषि उपयोग में किया जाता रहा है अतः लोक में प्रचलित हर प्रकार की वस्तुएं अलंकृत किए जाने की परंम्परा प्राचीन काल से ही हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है। मिट्टी की भीत हो या गोबर के भिठहुर हो लकड़ी की सामग्री, कपड़ों पर अलंकरण, कढ़ाई बुनाई यथा पंखे थैले, जूट और सरपत के अलंकृत पात्र यथा कुरूई, मौनी, भौकी, पेटारी, पेटारा या कोहबर, चैक, अल्पना या विभिन्न त्योहारों एवं मंागलिक अवसरों बनाये जाने वाले नाना प्रकार ‘लोक कला’ के रूप जो परम्परा से चले आ रहे थे जो आज औद्योगिक हमलों और बाजारवाद के भेंट चढ़ गए। उक्त प्रकार के पत्थर के कोल्हू यद्यपि गन्ने की पेराई के उपयोग में लाये जाते थे, जिनका निर्माण काल क्या है ठीक ठीक ज्ञात नहीं हो पाता परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही कोल्हू के इस रूप का चलन हमारे षास्त्रों में उल्लिखित है। जबकि इसी प्रकार के कोल्हू का प्रयोग तिलहन पदार्थाें से तेल निकालने के हेतू भी किया जाता है यद्यपि यह कोल्हू काष्ठ निर्मित होते हैं।
हाथी के विविध रूपों मंे एकरूपता के नाम पर उसकी संरचनागत विशिष्टता के साथ साथ रचनाकार की मौलिकता का प्रदर्षन सभी चित्रों में बना रहता है।
पत्थर का कोल्हू पूर्ण रूप में 
पत्थर का कोल्हू टुटा हुआ 
 इन आकृतियों में हाथी का अलंकरण जिसको स्थानीय लोगों द्वारा श्रृंगार व झोल डालकर तैयार किया जाता है जिसे भिन्न नामों से पुकारा जाता है इनके अलावा इनके हौदों को भी बखूबी बनाया गया है हौदों के आकार भी भिन्न-भिन्न हैं झोल व श्रृंगार भी विविध रूपों में बनाए गये है, हथसवारों के अतिरिक्त इनके पिलवान हाथी के सिर और पीठ के बीच लगभग गले के उपर बैठाये दिखाए गए हैं जहां हथसवार के हाथ में हुक्का या पंख्ेा के आकार की आकृतियां अंकित हैं वहीं सईस के हाथ में भालानुमा अस्त्र भी दिखाया गया है, हथसवार को मेहराब की आकृति में अंकित किया गया है। इन आकृतियों को उकेरने हेतु जिन औजारों का प्रयोग कलाकार करते थे उन्हें वे स्वंय तैयार करते थे ज्यादातर ये लाल बलुए पत्थरों मंे बनाए गए हैं। 
अगरौरा जौनपुर के कोल्हू में हथसवार के ठीक पहले गणेश जी की आकृति एक मेहराब में दिखाई गयी है ये चार हाथ वाले गणेश जी है जिनके हर हाथ में कुछ न कुछ दिखाया गया है। एक हाथ में वाद्य यंत्र दूसरे में मोदक तीसरे और चैथे में माला या पंखा के आकार की आकृतियां निरूपित की गयी हैं। सिर पर पहाड़ के आकार मुकुट बनाया गया है गले में माला की आकृति बनाई गयी है और जिस आसन पर वह बैठे हैं उसे इस तरह का बनाया गया है जो हाथी के समान दिखाई दे रहा है।
नाना प्रकार की आकृतियों से अलंकृत ये कोल्हू अपने में एक लोक का सांस्कृतिक इतिहास समेटे हुए है, परन्तु रख-रखाव की अव्यवस्था के चलते इनके नष्ट होने के हालात निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह की अव्यवस्था के अनेक कारण हैं जिसमें आबादी की बेतहासा बृद्वि भी है जिसके कारण इसे या तो नींव में छुपा दिया जा रहा है या तोड़कर इसके टुकड़े बना दिये जा रहे हैं। वैसे तो नाना प्रकार ‘लोक कला’ के रूप जो परम्परा से चले आ रहे थे उनके संरक्षण एवं संकलन की महती आवश्यकता प्रतीत होती है, परन्तु उक्त प्रकार के कोल्हुओं का संरक्षण एक मुश्किल काम भी है क्योंकि इनकी लम्बाई मोटाई और भार इतना अध्कि है कि बिना अभियांत्रिक मदद के सम्भव नहीं हो सकेगा । 
अतः यदि हमें इस अमूल्य धरोहर को बचाना है तो इसके लिए समुचित माध्यमों से इस लोक कला के संरक्षण की गुहार लगानी पड़ेगी यदि समय रहते इनकी संरक्षा न हुयी तो यह लोक और लोककला की अमूल्य थाती लुप्तप्राय हो जायेगी। 

डाॅ.लाल रत्नाकर
रीडर व अध्यक्ष, चित्रकला विभाग, 
एम0 एम0 एच0 कालेज, गाजियाबाद-201001

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें