आजकल

रंगों के दायरे में आपराधिक चुप्पियों को तोड़ने की कोशिश

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/03/2013 06:17:00 PM




तबरेज अंसारी की पेंटिंग्स पर अंजनी कुमार की रिपोर्ट

28 अप्रैल से 4 मई 2013 तक ललित कला अकादमी, दिल्ली की गैलरी न. 3 में कुल नौ युवा चित्रकारों की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी हुई थी। तबरेज की ‘वुमेन’ थीम पर बनाई गई कुल पांच पेंटिंगें थीं। इस पेंटिंग से यूं गुजर जाना आसान नहीं था। तबरेज की ‘स्त्री’ मेसोपोटामियाई तर्ज पर बनाई जा रही आधुनिक स्त्री नहीं थी जिसमें सिर पशु या पक्षी का होता है और शरीर मांसलता से लदी फदी न्यूड महिला का होता है। ये मकबूल फिदा हुसैन की लहरदार रेखाओं में से निकलती आ रही मादक, सम्मोहक या शुभ्रता से भरी स्त्रियां भी नहीं थीं। ये कुछ कुछ हरिपाल त्यागी की ‘कैबरे डांसर’ सीरीज की स्त्रियों की याद दिला रही थीं जिसमें मशीनी जीवन और श्रम से स्लथ शरीर ऊंची स्वर लहरियों में टूट कर बिखर रहा है। तबरेज की पेंटिंग में स्त्रियां सफेद उजले रेखांकन में गुम होती हुई दिखती हैं। तकलीफ से टूटती, चीखती हुई, खोह के भीतर अनसुनी पुकार करती हुई, अस्मिता बचाते हुए विरूप होती हुई, ...भाप की तरह दिखती और खत्म होती हुई...। तरबेज की पेंटिंग अमूर्त नहीं है। वे समसामयिक विषय पर हैं। तरबेज के अनुसार ‘दिल्ली में बलात्कार की घटना ने मुझे भी झकझोरा। ये पेंटिंग उसी विषय पर है।’

आमतौर पर पेंटर अपनी पेंटिंग के बारे में कम ही बोलते हैं। थीम पर तो और भी कम। तबरेज अपने विषय को पेश कर समाज में हस्तक्षेप को साफतौर पर बता देना चाह रहे थे। उनकी साफगोई से भी इस पेंटिंग में भाप बनती स्त्रियों का चित्रण देर तक उलझाए रहा। युवाओं में आमतौर पर न्यूड पेंटिंग का आकर्षण रहता है, जटिलता और प्रयोग के लिहाज से उन्मुक्तता शायद इसका एक बड़ा कारण है। लेकिन यहां आंख कैनवास किसी एक हिस्से पर टिकती ही नहीं है। विशाल मकानों में से झांकती दरारें, विवर, घूरती खिड़कियों में से निकल आई आंख, वेदना से खुला हुआ मुंह, बेचैनी से भरा शरीर और इन सबके ऊपर ऊपर की ओर उठती लहरदार सफेद रेखाओं निकलती आती स्त्री। मैं लगातार इस चित्रांकन पर सोचता रहा।

तबरेज अंसारी झारखंड के रहने वाले हैं। झारखंड से हजारों बच्चियां प्रतिवर्ष काम के लिए दिल्ली आती है। दिल्ली के ऊंचे और मध्यवर्ग के घरों से लेकर ऑफिसों में काम करने वाली बच्चियों की संख्या लाखों में है जिसमें सर्वाधिक संख्या झारखंड की बच्चियों का है। इन शहरों में बच्चियों की यातना, मौत और गायब हो जाना एक ऐसी सच्चाई है जो अक्सर ही अखबार की सुर्खियां बन जाती हैं। इस पेंटिंग में यातना, मौत और गायब हो जाने की भयावहता साफ दिखती है। मछली और बकरी का बिम्ब, रोशनी में चुंधियाता चेहरा और विशाल मकानों की निरसता में रंगों को एक दूसरे पर चढ़ाकर खुरचने, कहीं साफ करने और कई जगह एक रंग को गाढ़ा करते जाने से कैनवास शुरू में अनगढ़ सा लगता है लेकिन जैसे जैसे समय गुजरता है रंग, बिम्ब और आकृतियां अपनी गिरफ्त बनाने लगती हैं। जिस समय दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ दूसरे दौर का विरोध और प्रदर्शन चल रहा था उसी समय यह प्रदर्शनी भी लगी हुई थी। तबरेज हसन अंसारी के इस हस्तक्षेप को पेंटिंग के दायरे में व्याप्त आपराधिक चुप्पी को तोड़ने की कोशिशों के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।

इस प्रदर्शनी में विपिन शर्मा की पेंटिंग ‘साधू’, ‘रोड लाइफ’ और ‘लाइफ’ धर्म और जीवन के त्रासद संबंध को बहुत नाटकीय ढंग से पेश करता है। मोहम्मद तारीक की पेंटिंग में प्रकृति में अनंत का आभास नहीं कराता बल्कि यह अपनी सारी खूबसूरती और जीवतंता के साथ अंत्यंत करीब आता दिखता है। उनकी ‘ग्रीन गॉसिप’ ऐसी ही पेंटिंग है।

'हाशिया से साभार'

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