सोमवार, 2 सितंबर 2024

“90% भारतीय मिस इंडिया प्रतियोगिता में भी शामिल नहीं हैं”

 सुंदरता, जाति और ‘मिस इंडिया’ प्रतियोगिता

(कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 24 अगस्त, 2024 को प्रयागराज की अपनी बैठक में कहा कि “90% भारतीय मिस इंडिया प्रतियोगिता में भी शामिल नहीं हैं”। इस बयान के जवाब में संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि गांधी का बयान केवल उनकी “बालक बुद्धि” (बचकानी मानसिकता) को दर्शाता है। )

कांचा इलैया शेफर्ड
02 सितंबर 2024

भारत

विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने एक नाज़ुक मुद्दे को छुआ है और हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा बनाए गए जातिवादी ‘परंपरा’ के मूल सांस्कृतिक संरक्षण को हिला दिया है।
राजा रवि
राजा रवि वर्मा की पेंटिंग। 
(छवि क्रेडिट: विकिमीडिया कॉमन्स)

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 24 अगस्त, 2024 को प्रयागराज की अपनी बैठक में कहा कि “90% भारतीय मिस इंडिया प्रतियोगिता में भी शामिल नहीं हैं”। इस बयान के जवाब में संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि गांधी का बयान केवल उनकी “बालक बुद्धि” (बचकानी मानसिकता) को दर्शाता है। राहुल गांधी को निशाना बनाने के लिए इस मुहावरे का इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले भी संसद की बहसों में किया था। लेकिन सवाल यह है कि 90 प्रतिशत भारतीय महिलाओं के मिस इंडिया प्रतियोगिता में भाग लेने और मिस इंडिया का चयन करने तथा उसके बाद मिस वर्ल्ड के लिए वैश्विक प्रतियोगिता में आगे बढ़ने के बारे में सच्चाई क्या है?

इस पूरी मिस इंडिया प्रतियोगिता ने महिलाओं की सुंदरता के लिए एक मानक स्थापित किया है। यह सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के साथ-साथ बड़े उत्सव का कारण भी बन गया है। स्वतंत्रता-पूर्व युग में, किसी ब्राह्मण या क्षत्रिय महिला द्वारा ‘सुंदरता’ के ऐसे शारीरिक प्रदर्शन में भाग लेने की कल्पना करना असंभव था। लेकिन, स्वतंत्रता-उत्तर भारत में, यह उच्च जाति की युवतियाँ हैं जो इस उपलब्धि के लिए खुद को प्रशिक्षित करती हैं और कुछ पहले ही प्रतियोगिता जीत चुकी हैं। लेकिन ‘उस सुंदरता’ का विचार जाति, रंग और शिक्षा की रूढ़ियों में निहित है।

भारत में सुंदरता का विचार एक निश्चित प्रकार के रंग और जाति और वर्ग के संदर्भ में एक महिला के सामाजिक स्थान के इर्द-गिर्द निर्मित होता है। जो लोग यह निर्धारित करते हैं कि कौन सी महिला ‘सुंदर’ है, साथ ही उस मंच पर पहुँचने वाले प्रतिभागी, सभी जाति, रंग और धन के संदर्भ में एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं।
चित्र ; डॉ लाल रत्नाकर 

दलित/आदिवासी/ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) महिलाएँ सौंदर्य प्रतियोगिता के मंच तक नहीं पहुँच पातीं, क्योंकि ये उनकी पहुँच से बाहर हैं। निर्णायक और प्रतिभागी दोनों ही प्राचीन संस्कृत पुस्तकों से सौंदर्य की लिखित और चित्रित दृश्य छवियों से बहुत कुछ सीखते हैं। एक आदर्श सौंदर्य की आधुनिक पेंटिंग भी उन पाठ्य कथाओं से बहुत कुछ सीखती हैं।

भारत में, महिला की सुंदरता का विचार मूल रूप से पौराणिक पुस्तकों से आता है, जिसका वर्णन संस्कृत में लेखकों ने किया है, साथ ही उन चित्रों से भी जो उसी जाति और वर्ग के लोगों को प्रभावित करते हैं। एक प्रभावशाली बुद्धिजीवी के रूप में एक लेखक ने उन जातियों और वर्गों की महिलाओं का वर्णन किया, और चित्रकार ने इसे एक कला के रूप में चित्रित किया, या तो उन पाठ्य कथाओं से या उनके अस्तित्वगत जीवन से। उदाहरण के लिए, आधुनिक भारतीय महिला की सुंदरता राजा रवि वर्मा द्वारा कई रंगों में पौराणिक महिलाओं के चित्रों से प्रभावित होती है। उन चित्रों में मानक सुंदर महिलाएँ सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, सीता, शकुंतला आदि हैं। रवि वर्मा ने कभी भी सूर्पनखा को एक सुंदर महिला के रूप में नहीं चित्रित किया। न ही उनके चित्रों में किसी कामकाजी महिला को सुंदर दिखाया गया। पौराणिक ग्रंथों में सभी शूद्र महिलाओं को कामकाजी महिला माना जाता था और उन्हें सुंदर नहीं माना जाता था। ऐसी महिलाओं की जाति और खेतों में उनका श्रमशील जीवन ही सुंदरता की परिभाषा निर्धारित करता था। सुंदर देवी सरस्वती कभी उन्हें शिक्षा देने के लिए नहीं बनीं और सुंदर देवी लक्ष्मी कभी उन्हें धन देने के लिए नहीं बनीं। सुंदरता और जाति के बीच यह लंबे समय तक चलने वाला पौराणिक संबंध स्वतंत्र भारत में भी समाप्त नहीं हुआ। बच्चों द्वारा पढ़ी जाने वाली पाठ्य पुस्तकें सुंदरता के उसी विचार को आगे बढ़ाती रहती हैं।

मार्कंडेय पुराण में वरुधिनी की सुंदरता और प्रवराख्या के साथ उसके प्रेम संबंध का वर्णन कई स्कूली पुस्तकों में वर्णित है। हमें याद रखना चाहिए कि सुंदर महिलाओं की ये कथाएँ ब्राह्मणों या क्षत्रियों की जातिगत पृष्ठभूमि में स्थापित की गई हैं। शूद्र और वैश्य, 'म्लेच्छ' महिलाओं को कभी भी सुंदर नहीं बताया गया है, जिसे दक्षिणपंथी विद्वान और नेता अब "हिंदू पुस्तकें" कहते हैं।

महिलाओं की सुंदरता का यही विचार हमारे फिल्म उद्योग, टीवी धारावाहिकों, एंकरों और प्रस्तुतकर्ताओं पर हावी है।

यह एक निर्विवाद तथ्य है कि शूद्र/दलित और आदिवासी समुदायों की हजारों महिलाएं हैं जो पौराणिक महिलाओं जितनी ही सुंदर थीं, या उससे भी अधिक। पौराणिक पुस्तकों में उनका वर्णन कहां है? महाभारत में कृष्ण के जीवन के इर्द-गिर्द नकारात्मक अर्थ में कुछ गोपिका महिलाओं की कथाओं को छोड़कर, शूद्र/दलित/आदिवासी महिलाओं की कोई भी महिला सौंदर्य कथा कभी लिखी या चित्रित नहीं की गई।

एक महिला की सुंदरता की धारणा आधुनिक सिनेमा, टीवी धारावाहिकों, टीवी एंकरों और मंच एंकरों के माध्यम से चलती है। यह धारणा महिलाओं की सौंदर्य प्रतियोगिताओं तक फैल जाती है जहां प्रसिद्धि, प्रचार, लोकप्रियता, पैसा और ग्लैमर शामिल होते हैं। मिस इंडिया चयन समिति के सदस्य सुंदरता की अपनी धारणा कहां से लेते हैं? वे किस जाति से आते हैं? उनमें से ज्यादातर हमेशा उच्च जातियों से होते हैं और सुंदरता के अपने विचार पौराणिक पुस्तकों, रवि वर्मा की पेंटिंग्स और अपने ड्राइंग रूम और डाइनिंग टेबल पर सुंदरता के उन्हीं मानकों के बारे में दैनिक चर्चाओं से लेते हैं। उनकी दीवारों पर फ़्रेम की गई पेंटिंग टंगी होती हैं।

सिनेमा और टीवी उद्योग महिलाओं का चयन करते हैं‘वह सुंदरता’ और आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा तथा डिजाइनर कपड़ों के प्रति उनका अनुकूलन। शूद्र/दलित/आदिवासी महिलाओं के पास आज भी इन चीजों तक पहुंच नहीं है।


पश्चिम में, महिलाओं की सुंदरता के विचार में जानबूझकर विविधता आ रही है, जिसमें केवल गोरी ही नहीं, बल्कि काली, भूरी और अन्य महिलाएं भी शामिल हैं। हम इसे उनके सिनेमा और टेलीविजन पर देख सकते हैं। पश्चिमी सभ्यता में सुंदर महिलाओं के लिए कोई ‘दैवीय मानक’ नहीं हैं।

भारत में, सभी क्षेत्रों में महिलाओं की ऐसी समावेशिता अभी तक एक आदर्श नहीं है। राहुल गांधी अब एक बदलावकर्ता के रूप में ऐसी असामान्य चीजों के बारे में बात कर रहे हैं। निश्चित रूप से, पारंपरिक और रूढ़िवादी प्रवचन और राजनीतिक मुद्राओं में, बदलावकर्ताओं पर ‘बचकाना’ कहकर हमला किया जाता है, जिसे हिंदुत्व की भाषा में ‘बालक बुद्धि’ कहा जाता है।

यहां तक ​​कि सामान्य उदारवादी प्रवचन में भी, मिस इंडिया या मिस वर्ल्ड के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली जाति जैसे मुद्दों को अपरिपक्व और बचकाना माना जाता है। लेकिन कम से कम एक राजनेता, जो अब विपक्ष का नेता है, ये सवाल उठा रहा है। क्या उन्हें उसे बचकाना मानकर खारिज कर देना चाहिए?

अगर भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली मिस वर्ल्ड जीतने वाली महिलाओं की सूची देखें, तो जाति और अंग्रेजी शिक्षा के बीच संबंध देखा जा सकता है।

1966 में पहली मिस वर्ल्ड गोवा की एक धर्मांतरित कैथोलिक ईसाई उच्च जाति की महिला रीता फारिया थीं। दूसरी ऐश्वर्या राय थीं, जो कर्नाटक के कोंकण क्षेत्र की एक और अच्छी तरह से शिक्षित उच्च जाति की महिला थीं। तीसरी डायना हेडन, चौथी युक्ता मुखी, पांचवीं प्रियंका चोपड़ा और छठी मानुषी छिल्लर।

हम सभी जानते हैं कि ऐश्वर्या राय और प्रियंका चोपड़ा मिस वर्ल्ड के दर्जे का उपयोग करके कैसे विश्व स्तर पर लोकप्रिय अभिनेत्रियाँ बनीं। उन सभी के पास अच्छी अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के साथ जाति-वर्ग का दर्जा है। वे सभी पहले मिस इंडिया बनीं और फिर मिस वर्ल्ड बनीं।

अगर शूद्र/दलित/आदिवासी पुरुष या महिला बुद्धिजीवी ऐसे सवाल उठाते हैं, तो ‘अन्य’, जो उच्च नैतिक, जातिविहीन, दिखावटी बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें अनदेखा कर देते हैं या मूर्खता मानकर खारिज कर देते हैं। जब राहुल गांधी जैसे नेता इन चीजों के बारे में बात करते हैं, तो कम से कम मीडिया का एक हिस्सा नोटिस करता है जबकि ‘अन्य’ (इस मामले में, सत्ताधारी ताकत) प्रतिक्रिया देते हैं। यह अपने आप में बदलाव लाने में योगदान देता है।
चित्र ; डॉ लाल रत्नाकर 


मिस इंडिया का रूपक राजनीतिक रूप से शक्तिशाली है। सभी क्षेत्रों में 90% भारतीयों की अनुपस्थिति, जिसमें महिलाओं द्वारा खुद को 'नारीत्व' का प्रतिनिधित्व करने का क्षेत्र भी शामिल है, क्योंकि वे शूद्र या दलित या आदिवासी पैदा हुई हैं, बहुत रचनात्मक है।

एक वैचारिक रूप से दमनकारी संस्कृति में, परंपरा का विचार जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ/भारतीय जनता पार्टी के बुद्धिजीवी और नेता राष्ट्रवादी कहते हैं, सौंदर्य के सांस्कृतिक क्षेत्र में वह परंपरा केवल कुछ पुस्तकों से आती है, जो वास्तविक जीवन में चित्रों और अभ्यास में बदल जाती है। वास्तव में, वह राष्ट्रवाद नहीं है।

इसलिए, उस क्षेत्र के बारे में सवाल उठाना उस परंपरा की कच्ची नस को छूता है, और आधुनिक नागरिक समाज और राज्य पर उसके मानचित्रण को उजागर करता है।

राहुल गांधी ने जातिवादी परंपरा के उस मूल सांस्कृतिक संरक्षण को हिला दिया है। उम्मीद है कि जो लोग बदलाव चाहते हैं और मिस इंडिया और मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता सहित हर क्षेत्र में शामिल होना चाहते हैं, वे इसे समझेंगे।

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लेखक एक राजनीतिक सिद्धांतकार, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं। वे मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद में सामाजिक बहिष्कार और समावेशी नीति अध्ययन केंद्र के पूर्व निदेशक हैं। उनके विचार व्यक्तिगत हैं। 

साभार :
न्यूज़क्लिक
की वेबसाइट से और हिंदी अनुवाद गूगल ट्रांसलेशन से। 

सोमवार, 4 नवंबर 2013

कलाओं की ओर बढ़ता गाजियाबाद .......

 कलाओं की ओर बढ़ता गाजियाबाद 
( अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद-2013 के विशेष सन्दर्भ में )  

डॉ.लाल रत्नाकर         
          
इस वर्ष के अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद की चर्चा हो उससे पहले हमें गाजियाबाद में कलाओं के उद्भव को जानना लाजिमी होगा, गाजियाबाद देश की राजधानी दिल्ली (राष्ट््रीय राजधानी क्षेत्र) के करीब का शहर होने के साथ साथ उत्तर प्रदेश का एक औधोगिक शहर है इसका विकास जितने अल्प समय मे हुआ है निश्चित रूप से यह प्रतीत होता है कि भविष्य मे यह शहर विभिन्न विधाओ का केन्द्र बनेगा। ऐसे मे समय की मांग है कि इस शहर मंे कला एंव सांस्कृतिक गतिविधियों का विकास हो। अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद के तत्वाधान में 2004,2005,2006 के उपरान्त इस वर्ष 2013 का आयोजन कई मायने में गाजियाबाद की कला के विकास में मील का पत्थर सावित हुआ है।  लम्बे अन्तराल के उपरान्त गाजियाबाद में अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद-2013 का आयोजन इसलिए सम्भव हो पाया क्योंकि कलाप्रेमी श्री संतोष कुमार यादव का संरक्षकत्व मिला निश्चित रूप से यह अवधारणा पुर्नस्थापित हुयी कि कलाआंे के समुचित विकास के लिए संरक्षकत्व की महति आवश्यकता है। गाजियाबाद जहां नगरीय विकास की अपनी अवधारणा में प्रगतिगामी है, वैश्विक मान्यताओं के अनुरूप अपना स्वरूप गढ़ने में अग्रणी है यद्यपि उनका उद्येश्य व्यवसायिक ही है, पर भले ही आज उन्हें इसबात की जरूरत महसूश न हो पर कहीं न कहीं हमें हमारी उन परम्पराओं को भी जीवित रखते हुए उन्हें प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इन्हीं उद्येश्यों की पूर्ति के लिए सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़ाई जानी आवश्यक हैं, जिसे प्रशासन ने एक आयाम दिया है जिसमें ‘कलाधाम’ का निर्माण ही इन्हीं उद्येश्यों की पूर्ति के लिए गाजियाबाद विकास प्राधिकरण गाजियाबाद द्वारा कराया गया है।

हमेशा की तरह इसबार भी देश के कोने कोने से मूर्तिकारों एवं चित्रकारों की एक बड़ी टीम जिसमें युवा एवं वृद्ध समान रूप से शरीक हुए हैं जिनका उल्लेख आगे किया जाएगा। इस कला उत्सव में मूर्तिकारों को अधिक समय और चित्रकारों को अपेक्षाकृत कम समय की जरूरत होती है इसीलिए मूर्तिशिल्पी फरवरी,24,2013 को ही आ गए जिससे वह अपना कार्य समय से आरम्भ कर सकें और तय समय के भीतर पूरा कर लें। अतः मूर्तिकला कार्यशाला के आयोजन का आरम्भ फरवरी,25,2013 को 11 बजे मुख्य अतिथि के रूप में पधारे पद्मश्री राम वी. सुतार के करकमलों द्वारा हुआ जिसकी अध्यक्षता संतोष कुमार यादव, उपाध्यक्ष, गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने की संरक्षकत्व का दायित्व एस.वी.एस. रंगाराव जिलाधिकारी गाजियाबाद ने निर्वहन किया, इस अवसर पर सुश्री किरन यादव यातायात पुलिस अधीक्षक एस.वी राठौर एवं डी.पी.सिंह विशेष कार्याधिकारी गा.वि.प्रा. ने इस    निहायत सादे समारोह में अतिथियों को उनके किट और पुष्पगुच्छ प्रदान किए। तद्परान्त मुख्य अतिथि पद्मश्री राम वी. सुतार ने इस अवसर पर मूर्तिकला कार्यशाला का शुभारम्भ एक विशाल शिला पर अपने कुशल शिल्पी अन्दाज में जिस सधे अन्दाज से आघात लगाए तो कलाधाम का प्रांगण फिर से उस अट्हास से उन्मादित हो उठा इस अवसर पर राजस्थान से बुलाए गए मूर्तिकारों के सहायकों का भी स्वागत किया गया। नगर से पधारे कला प्रेमी, पत्रकारगण, कला विद्यार्थियों एवं गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के अधिकारीगण, अभियन्तागण, अभियन्त्रण सेवाओं एवं अन्य कर्मचारीगण के सम्मुख मूर्तिकारों ने अपनी शिलाओं को चिन्हित किया। संयोजकत्व एवं सहभागी मूर्तिकार का दायित्व भी लेखक ने निर्वहन किया एवं कार्यक्रम का संचालन डा.प्रकाश चैधरी ने किया।  

मूर्तिकारों ने अपने किट से एप्रिन निकाले पहने स्केच बुक पर कुछ आडी तिरछी रेखाएं खींचनी आरम्भ की, फिर क्या था कलाधाम परिसर में हथौड़े और छेनियों की झनकार और ग्राईण्डरों का शोर उनसे निकलते हुए आकार दर्शकों की जिज्ञासा और काले मार्बल में बनते आकार कलाकारों की चहल कदमी आपसी हालचाल और उनके काम का हल्का से आकलन फिर क्रेन से शिलाओं का नियन्त्रण इस प्रकार आरम्भ हुयी मूर्तिकलाओं की कार्यशाला। पूरे परिसर में संगीतलहरी के साथ सर्द हवाएं सायंकाल तक कोई रूकने का नाम ही नहीं ले रहा है। दर्शकों का कौतुहल बना हुआ है आकार दिखाई तो दे रहे हैं पर वे आकलन नहीं कर पा रहे हैं क्या बनेगा, एक तरफ से हताश दूसरे मूर्तिकार से वही सवाल क्या बना रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि इनमें असली मूर्तिकार कौन हैं, जो शिलाओं को तोड़ रहे हैं या जो उन्हें निर्देशन कर रहे हैं, अद्भूद संगम है।  यहां यह बताना जरूरी है कि अब तक जितने भी कैम्प यहां आयोजित हुए हैं उनमें काला मारबल ही प्रयोग किया गया है। आइए बताते हैं कौन कौन हैं इसबार के मूर्तिकार और ये कहां से यहां आए हैं -  पहले चलते हैं तारक ‘दा’ के पास इनका पूरा नाम है श्री तारक गरई यह कोलकाता से आए हैं ये इससे पहले भी सम्पन्न कला उत्सव में शरीक रहे हैं 2006 और 2007 स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाले समकालीन मूर्तिकार हैं अन्र्तराष्ट््रीय ख्यातिलब्ध तारक दा शान्ति निकेतन से कला की शिक्षा के बाद अपनी एक पहचान बनाए हैं, सभी माध्यमों में बंहुत ही निपुणता से कार्य में दक्ष हैं साथ ही अन्य कलाओं में भी अपनी दखलंदाजी रखने वाले दादा सरल और मृदुल स्वभाव के व्यक्ति हैं। 2006 के कैम्प की इनकी एक समूह प्रतिमा जिसमें तीन प्रतिमाएं बनायी गयी थीं जिन्हें कलाधाम में स्थापित करते समय अलग अलग कर दिया गया जिससे उसकी भव्यता तो कम ही हुई और अर्थहीन भी हो गयी, इससे दादा को पता चला तो बहुत दुख हुआ, संयोजक के नाते मैंने पुनः उन्हें गाजियाबाद आने के लिए राजी किया, जब यह बात उपाध्यक्ष महोदय को पता लगी तो उन्होंने दादा को आश्वस्त किया कि इसे संयोजित कर समुचित और उपयुक्त स्थान पर लगवाया जाएगा। इसबार दादा ने तीन विशाल शिलाखंड लगभग 10 फुट ऊंचाई का वरण किया और उनको संयोजित कर ‘बुद्ध’ का विशाल चेहरा निरूपित किया, इसे बनाने में तीन सहयोगी कारबरों के साथ 15 दिनों तक निरन्तर कार्य किए। इसी क्रम में उन्होने एक और शिलाखंण्ड को आकार दिया जिसका नाम ‘कृष्ण’ रखा। दादा का गाजियाबाद से बहुत ही अपनेपन का सम्बन्ध हो गया है उन्हें यहां कला के विकास की असीम सम्भावनाएं दिखती हैं। यही तो बात है जिसके लिए उन्होने मूर्तियों के एक पार्क की मांग कर डाली। 

सी.पी.चैधरी उदयपुर राजस्थान से हैं यह राष्ट््रीय स्तर के वरिष्ठ मूर्तिकार हैं यह गाजियाबाद के अखिल भारतीय कला उत्सव में पहली बार शरीक हुए इन्होंने ‘खिड़की’ की रचना की है।  रतन लाल कन्सोडरिया अहमदाबाद गुजरात के जानेमाने मूर्तिकार हैं यह पहलीबार गाजियाबाद के अखिल भारतीय कला उत्सव में सिरकत किए हैं इन्होंने यहां जल संरक्षण पर अपना शिल्प तैयार किया हैं।  नागप्पा प्रधानी बंगलौर कर्नाटक से है विश्वभारती कला निकेतन शान्तिनिकेतन से शिक्षा लेकर के कला महाविद्यालय बंगलौर कर्नाटक मूर्तिकला विभाग में प्राध्यापक हैं पहलीबार गाजियाबाद के अखिल भारतीय कला उत्सव में शरीक हुए हैं ‘कम्पोजिशन’ नाम से आधुनिक शिल्प बनाया है।   शिब प्रसाद बरार रायपुर छत्तीसगढ़ से आए ‘मदरचाईल्ड’ शीर्षक से एक शिल्प तैयार किए हैं।  अशोक कुमार महापात्रा पुरी उड़ीसा से हैं इन्होंने ‘मूर्तिकार’ परम्परागत शैली में बनाया है।  सुशान्त कुण्डू मुम्बई महाराष्ट्र् से आए ये गाजियाबाद के कला आन्दोलन के सक्रिय युवा है मूर्तिकला कैम्प की तैयारी में हमेशा से इनका सहयोग रहा है, पहले गाजियाबाद आ जाना और सबसे बाद में जाना। युवा मूर्तिकार के नाते समकालीन कला पर गहरी पकड़, रचना की कसौटी पर खरे सुशान्त मेरे इस आयोजन के प्रमुख हिस्से से हो गए हैं।  पी.इलाचेन्झियन युवा मूर्तिकार हैं तमिलनाडु से पधारे चेन्झियन अनेक माध्यमों में दक्ष हैं इनके मेटल के काम तो बहुत ही गजब के हैं। यहां पर जो वृषभ इन्होंने बनाया है अब वह पुराने बस अड्डे के चैराहे पर विराजमान है।  नीलेश शिन्दे नागपुर महाराष्ट््र के युवा मूर्तिकार हैं गाजियाबाद पहलीबार आना हुआ पर अपने कौशल का प्रदर्शन जिस शिलाखण्ड में दिखाया है वह समकालीन मूर्तिशिल्प का नमूना है जिसे ‘सूरज और चांद’ शीर्षक दिया है।  परमिन्दर सिंह सन्धू पंजाब से आए और पहाड़ सी शिला चुनी और गढ़ दिया उसे जिसके अर्थ तलासते रहें लोग।  शिवान और कुमार सन्तोष जो गाजियाबाद से हैं ने भी आकृतियां तराशी हैं।  इन सब के साथ मुझे भी तारक दा ने लगा दिया उस विशाल शिलाखण्ड को गढ़ने के लिए जिसमें मुख्य अतिथि पद्मश्री राम वी. सुतार ने मूर्तिकला कार्यशाला का शुभारम्भ उसी विशाल शिला पर अपने कुशल शिल्पी अन्दाज में जिस सधे अन्दाज से आघात लगाए थे। मैने अपने कला पात्रों को रूपायित किया जिसमें आगे पीछे अनेक लोग जुड़ते गए कुल संख्या हो गयी सात, एक दूसरे को सहारा देते मानवीय सम्वेदनाओं को समेटे बिना सिर के सात लोग एक साथ आ गए।  यह सारे मूर्तिकार लगातार अपने कार्य मार्च,04,2013 तक पूरा करने का प्रयत्न तो किए लेकिन इसबार की शिलाओं का आकंर इतना विशाल था जो सामन्यतया किसी भी कैम्प में नहीं दिया जाता, परन्तु सभी ने अपने मनोयोग से अपने समस्त कार्यों को पूरा ही कर लिया था। 

चित्रकारों की कार्यशाला फरवरी,27, 2013 को श्री उदय प्रताप सिंह अध्यक्ष हिन्दी संस्थान उ.प्र. एवं प्रख्यात साहित्यकर्मी श्रीमती चित्रा मुद्गल जी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ जिसकी अध्यक्षता संतोष कुमार यादव, उपाध्यक्ष, गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने की संरक्षकत्व का दायित्व एस.वी.एस. रंगाराव जिलाधिकारी गाजियाबाद ने निर्वहन किया, इस अवसर पर एस.वी राठौर एवं डी.पी.सिंह विशेष कार्याधिकारी गा.वि.प्रा. ने इस निहायत सादे समारोह में अतिथियों को उनके किट और पुष्पगुच्छ प्रदान किए कार्यक्रम का संचालन विनोद वर्मा ने किया।   अगर देखा जाय तो कलाएं हमारे समाज का प्रतिनिधित्व भी करती हैं, वे केवल एक सजावट की सामग्री नहीं हैं इनमें कलाकार की अपनी अभिव्यक्ति भी है।   इसबार जो चित्रकार इसमें शिरकत किए वे इस प्रकार हैं श्री आलोक भट्टाचार्य कोलकाता, श्री भंवर सिंह पंवार, अहमदाबाद, गुजरात. श्री प्रेम सिंह, नोएडा. श्री आर.के. यादव, नई दिल्ली, श्री राव साहब गुरवु, पुणे, महाराष्ट््र, श्री मुरली लाहुटी पुणे, महाराष्ट््र, श्री अशोक भौमिक, नई दिल्ली, डा. राम शब्द सिंह, सहारनपुर, श्री मनोज बालियान, नई दिल्ली, श्रीमती डा. लता वर्मा, गाजियाबाद, श्रीमती कविता बालियान, गाजियाबाद, श्री कुमार संतोश, गाजियाबाद, श्रीमती रेनू यादव, गाजियाबाद, डा. अल्का चडढ़ा, मेरठ, श्रीमती प्रियंका जैन, सोनीपत, हरियाणा, श्रीमती रजनी, फरीदाबाद, हरियाणा, डा.दल श्रृंगार प्रजापति, मोदी नगर, गाजियाबाद। अरविन्द कुमार, गाजियाबाद. श्रीमती सीमा भाटी, गाजियाबाद, श्रीमती प्रीति वर्मा, गाजियाबाद, यदु एवं पुरू गाजियाबाद से इनके अतिरिक्त अनेक वे लोग भी शरीक हुए जो कुछ करना चाहते थे।  अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में इस कैम्प के दरमियान सायंकालीन दैनिक कार्यक्रम चलता रहा जिनमें कवि सम्मेलन, मंचन, नृत्य एवं नृत्य नाटिकाएं भी आयोजित हुईं प्रमुख रूप से इसमें जो कवि शरीक हुए उनमें डा. लक्ष्मी शंकर बाजपेयी, निदेशक-आकाशवाणी, श्रीमती कीर्ति काले, विष्णु सक्सेना, पापुलर मेरठी, देवल अशीष, सुरेंद्र दुबे, विजेंन्द्र परवाज, नवाज देवबंदी, मासूम गाजियाबादी। गान्धर्व संगीत महाविद्यालय के कलाकार, वी.एम.एल.जी. कालेज गाजियाबाद की छात्राएं, एम.एम.एच. कालेज गाजियाबाद के छात्र छात्राएं, आजमगढ़ से पंडित नाट्य मंच। सारंगा, नई दिल्ली आदि ने अपने अभिनय से दर्शकों एवं कलाकारों की वाह वाहियां बटोरी। ़ 
अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद-2013 के प्रायोजक आम्रपाली ग्रुप थे गा0 वि0 प्रा0 गाजियाबाद के तत्वाधान में इस कला उत्सव में निर्मित मूर्तियां एवं कलाकृतियां अपने तरह की एक अमूल्य निधि हैं।  
पूरा आयोजन दिनांक.04 मार्च 2013 को प्रो0 राम गोपाल यादव सांसद व नेता संसदीय दल लोकसभा समाजवादी पार्टी के द्वारा समापन की रस्म को पूरा किए सम्पूर्ण कला उत्सव में निर्मित मूर्तियां एवं कलाकृतियांे का अवलोकन कर प्रो0 यादव ने इनकी प्रासांगिता पर बल देते हुए राष्ट््र के कोने कोने से आए हुए कलाकारों का आभार ज्ञापित किए कि वह अपने कौशल से इस शहर के लिए बेशकिमती कलाकृतियां तैयार कर रहे हैं यह शहर हमेशा इन्हें याद रखेगा। प्रो0 यादव ने उपाध्यक्ष, जिलाधिकारी, सचिव व समस्त गा0 वि0 प्रा0 गाजियाबाद के अधिकारियों की प्रशंसा करते हुए मुझे (लेखक) भी हिम्मत बधाई कि मैं अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद के संयोजकत्व का दायित्व पूराकर पा रहा हूं। इस अवसर पर कलाप्रेमी नगरवासी, छात्र छात्राएं एवं समस्त कलाकार शामिल हुए।  
कलाओं की ओर बढ़ते गाजियाबाद की कला संकल्पना का एक चरण और आगे बढ़ा जिसमें कलकारों की मांग पर उपाध्यक्ष गा0 वि0 प्रा0 गाजियाबाद से मशविरा कर मूर्तिकला पार्क के निर्माण की प्रो0 राम गोपाल यादव द्वारा घोषणा की गयी जिसका श्री अखिलेश यादव मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश ने गाजियाबाद आगमन पर संजय नगर में ‘मूर्तिकला पार्क’ का शिलान्यास भी किया ।
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(लेखकः प्रख्यात चित्रकार हैं,अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद के संयोजक हैं, एम.एम.एच.कालेज गाजियाबाद मे चित्रकला विभाग के अध्यक्ष)  

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

लोककला व संस्कृति के संवाहक पत्थर के कोल्हू


डा.लाल रत्नाकर
यद्यपि लोक की कलाओं के इतिहास में जाएं तो हम सदियों सदियों के अन्तराल को भी कमतर पायेंगे मानव के उद्भव से ही ये कलाएं भी सहज ही उत्पन्न हो गयी होंगी, क्योंकि आदिम कला का इतिहास आज भी जिस रूप में हमारे सम्मुख है उसका स्वरूप किसी भी तरह बदला नहीं है और यही कारण है कि लोक कलाएं भी अपने स्वरूप को बदल नहीं पाती हैं जैसे ही इनका स्वरूप बदलता है वैसे ही इनकी पहचान समाप्त होने लगती है। समय की विडम्बना है कि जो कल महत्वपूर्ण था वह आज उतना महत्व नहीं रखता, पर लोक का विश्वास इससे परे परम्पराओं को लेकर चलने का है उन्हीं को सजाने संवारने और निरन्तरता को बनाए रखने में ही अपना उत्थान मानता रहा है। यही कारण है कि ये कलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं और लोक को अपने में पिरोए दूर तक ले जाती हैं, यही कारण है कि इन्हें परम्परागत कह कह कर उपेक्षित किया जाता रहा है। पर इन्हीं कलाओं में मधुबनी, वार्ली, पटचित्रण, कलमकारी, गोंड, रंगोली, फड़, बाटिक, अल्पना, जादोपटिया, पिछवई, पिथोरा आदि कलाएं तो हैं ही साथ ही लोकगीतों की विस्तृत परम्परा भी है। 
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत की लोक कलाएं अपने विविध रूपों में फैली हुई हैं, जिनमें मेंहदी, महावर, गोदना और मुखौटों का प्रमुख स्थान है। इन्हीं कलाओं के रूप में लोक लिबास, पहनावे, आभूषणों की भी विविध परिपाटी देश के विभिन्न कोनों में नजर आ ही जाती है। इनके अलावा लोकरंग के सुन्दर रूप लोक वास्तु में भी दिखाई देते हैं, यथा मड़ई की विस्तृत रूप भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग तरह के नजर आते हैं, यहीं पर कच्चे मकान और उनमें प्रयुक्त होने वाले नाना प्रकार के अवयव लोक की विरासत के रूप मे अपना स्थान बनाते हैं। जबकि पूरे देश में फैले ‘काष्ठ’ के कलात्मक कार्य उसी लोक काष्ठ कलाकारों की देन हैं जो अपनी स्थानीयता को संजोए कईबार उन्नत कला के ग्रास बन जाते हैं। इसी क्रम में हमें घरेलू सामग्रियों को नहीं छोड़ना चाहिए जिनमें लोक कलाएं प्रमुखता से अपनी जगह बनाती हैं चूल्हे चैके से लेकर कठौता, मथानी, मचिया, खटिया, नक्कासीदार आलमारियाॅं पलंग, खम्भे, घोडि़या, दरवाजे और पूजा से जुड़े सामानों में रेहल, चैकी व मन्दिर भी लोक में प्रायः नजर आते हैं। इनका निर्माण स्थानीय लोककला का रचनाकार लोक का परम्परागत स्वरूप ही उनकी रचनाओं में दिखता है।
उक्त विस्तार को विराम देते हुए हम इसी तरह की कलाओं में पत्थर व लकड़ी के वो काम जो बहुत ही महत्व के हैं,  जिनमें लोक कलाओं के मोटिफ एवं प्रतीक भरे पड़े हैं, जो पूरे देश में किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं जिनमें लोककला की परम्परा ही दिखती है। जिनका स्वतंत्र रूप से विवेचन किया जाना है, समय और विषय को प्रभावशाली बनाने हेतु यहाॅं पर पत्थर के कोल्हू के उत्कीर्णन का काम दर्शनीय है। 
उत्तर प्रदेश के पूरे पूर्वंाचल वाराणसी, मिर्जापुर, जौनपुर, आजमगढ़, गोरखपुर, फैजाबाद, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ आदि में फैले या बिखरे पत्थर के कोल्हू जहां किसी जमाने के सम्पन्नता और कृषि की उन्नतता के प्रतिबिम्ब के प्रतीक थे वहीं वह विलक्षण कला धरोहर के साथ साथ सांस्कृतिक, धार्मिक सामाजिक एवं श्रृंगारिक सभ्यता के सम्वाहक के रूप में गुजरे हुए कल के गवाह के रूप में विरान पड़े हैं, इन पर अंकित प्रतीक व रूप हमारे कौशल का जो इतिहास बयां कर रहे हैं वह दुनिया के लोककला के पटल पर यदि अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें तो अद्वितीय धरोहर होंगे दुर्भाग्यवश ये अमूल्य निधि सरकारी लापरवाही और संरक्षण की उपेक्षा व अभाव के कारण कहीं नष्ट न हो जाएं। अविभाजित उत्तर प्रदेश के उस जमाने के कला एवं सांस्कृतिक कार्य निदेषक से लेखक अपने शोध निर्देशक प्रो0 आनन्द कृष्ण के साथ मिलकर यह आग्रह किया था कि इन लोककलाओं की अमूल्य धरोहर की रक्षा के लिए कुछ करिऐ पर बात आई गयी हो गयी, तब से अब तक तो लम्बा समय गुजर गया है।
अब हम आते हैं इन्ही कोल्हुओं के बारे में विस्तार से बात करने के लिए क्योंकि इनका सम्बन्ध लोक के बहुउद्ेशीय कला स्वरूपों से जुड़ा हुआ है, जहाॅ एक ओर ये उपयोगी यन्त्र के रूप में प्रयुक्त होते हैं वहीं इनका धार्मिक, सामाजिक, श्रृंगारिक, शैक्षिक व प्रतीकात्मक अवयवों को समेटे हुये हैं वहीं तांत्रिक और आध्यात्मिक मूल्यों का भी समावेश भी है इनमें।
इन कोल्हुओं का निर्माण कालान्तर से कृषि उपयोग में किया जाता रहा है अतः लोक में प्रचलित हर प्रकार की वस्तुएं अलंकृत किए जाने की परंम्परा प्राचीन काल से ही हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है। मिट्टी की भीत हो या गोबर के भिठहुर हो लकड़ी की सामग्री, कपड़ों पर अलंकरण, कढ़ाई बुनाई यथा पंखे थैले, जूट और सरपत के अलंकृत पात्र यथा कुरूई, मौनी, भौकी, पेटारी, पेटारा या कोहबर, चैक, अल्पना या विभिन्न त्योहारों एवं मंागलिक अवसरों बनाये जाने वाले नाना प्रकार ‘लोक कला’ के रूप जो परम्परा से चले आ रहे थे जो आज औद्योगिक हमलों और बाजारवाद के भेंट चढ़ गए। उक्त प्रकार के पत्थर के कोल्हू यद्यपि गन्ने की पेराई के उपयोग में लाये जाते थे, जिनका निर्माण काल क्या है ठीक ठीक ज्ञात नहीं हो पाता परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही कोल्हू के इस रूप का चलन हमारे षास्त्रों में उल्लिखित है। जबकि इसी प्रकार के कोल्हू का प्रयोग तिलहन पदार्थाें से तेल निकालने के हेतू भी किया जाता है यद्यपि यह कोल्हू काष्ठ निर्मित होते हैं।
हाथी के विविध रूपों मंे एकरूपता के नाम पर उसकी संरचनागत विशिष्टता के साथ साथ रचनाकार की मौलिकता का प्रदर्षन सभी चित्रों में बना रहता है। इन आकृतियों में हाथी का अलंकरण जिसको स्थानीय लोगों द्वारा श्रृंगार व झोल डालकर तैयार किया जाता है जिसे भिन्न नामों से पुकारा जाता है इनके अलावा इनके हौदों को भी बखूबी बनाया गया है हौदों के आकार भी भिन्न-भिन्न हैं झोल व श्रृंगार भी विविध रूपों में बनाए गये है, हथसवारों के अतिरिक्त इनके पिलवान हाथी के सिर और पीठ के बीच लगभग गले के उपर बैठाये दिखाए गए हैं जहां हथसवार के हाथ में हुक्का या पंख्ेा के आकार की आकृतियां अंकित हैं वहीं सईस के हाथ में भालानुमा अस्त्र भी दिखाया गया है, हथसवार को मेहराब की आकृति में अंकित किया गया है। इन आकृतियों को उकेरने हेतु जिन औजारों का प्रयोग कलाकार करते थे उन्हें वे स्वंय तैयार करते थे ज्यादातर ये लाल बलुए पत्थरों मंे बनाए गए हैं। अगरौरा जौनपुर के कोल्हू में हथसवार के ठीक पहले गणेश जी की आकृति एक मेहराब में दिखाई गयी है ये चार हाथ वाले गणेश जी है जिनके हर हाथ में कुछ न कुछ दिखाया गया है। एक हाथ में वाद्य यंत्र दूसरे में मोदक तीसरे और चैथे में माला या पंखा के आकार की आकृतियां निरूपित की गयी हैं। सिर पर पहाड़ के आकार मुकुट बनाया गया है गले में माला की आकृति बनाई गयी है और जिस आसन पर वह बैठे हैं उसे इस तरह का बनाया गया है जो हाथी के समान दिखाई दे रहा है।
नाना प्रकार की आकृतियों से अलंकृत ये कोल्हू अपने में एक लोक का सांस्कृतिक इतिहास समेटे हुए है, परन्तु रख-रखाव की अव्यवस्था के चलते इनके नष्ट होने के हालात निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह की अव्यवस्था के अनेक कारण हैं जिसमें आबादी की बेतहासा बृद्वि भी है जिसके कारण इसे या तो नींव में छुपा दिया जा रहा है या तोड़कर इसके टुकड़े बना दिये जा रहे हैं। वैसे तो नाना प्रकार ‘लोक कला’ के रूप जो परम्परा से चले आ रहे थे उनके संरक्षण एवं संकलन की महती आवश्यकता प्रतीत होती है, परन्तु उक्त प्रकार के कोल्हुओं का संरक्षण एक मुश्किल काम भी है क्योंकि इनकी लम्बाई मोटाई और भार इतना अध्कि है कि बिना अभियांत्रिक मदद के सम्भव नहीं हो सकेगा । 
अतः यदि हमें इस अमूल्य धरोहर को बचाना है तो इसके लिए समुचित माध्यमों से इस लोक कला के संरक्षण की गुहार लगानी पड़ेगी यदि समय रहते इनकी संरक्षा न हुयी तो यह लोक और लोककला की अमूल्य थाती लुप्तप्राय हो जायेगी। 
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डा.लाल रत्नाकर
रीडर व अध्यक्ष
चित्रकला विभाग
एम0 एम0 एच0 कालेज, गाजियाबाद-201001
स्टूडियो व् आवास ;
आर-२४,राजकुंज, राजनगर
गाजियाबाद - 201009
www.ratnakarart.blogspot.com
artistratnakar@gmail.com
09810566808

अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति 
http://www.abhivyakti-hindi.org/kaladirgha/kalaakaar/lal_ratnakar.htm


३० जनवरी २०१२
कला और कलाकार
डॉ. लाल रत्नाकर
डॉ.लाल रत्नाकर का जन्म जौनपुर में १२ अगस्त १९५७ को हुआ, इन्होंने कला विषय में गोरखपुर विश्वविद्यालय स्नातक, कानपुर विश्वविद्यालय से परास्नातक बनारस हिन्दू 

विश्वविद्यालय वाराणसी से प्रोफेसर आनंद कृष्ण के निर्देशकत्व में 'पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला' पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। १ अक्टूबर १९९२ को गाजियाबाद में एम्.एम्.एच. कालेज के चित्रकला विभाग में कार्य प्रारंभ किया जहाँ वे सहायकर प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।

उनकी पहली एकल प्रदर्शनी '१९९६' में ललित कला अकादमी की रवीन्द्र भवन कला दीर्घा ७-८ में हुई जिसमें जलरंग, तैलरंग, एक्रेलिक तथा रेखांकन प्रदर्शित किये गए थे। इसके बाद दिल्ली में १९९८ में आईफेक्स में, ललित कला अकादमी में, मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलेरी में, कोलकाता की बिरला अकादमी आफ आर्ट एंड कल्चर में, हैदराबाद की स्टेट आर्ट गैलरी और सी सी एम बी हैदराबाद में, फिर बेंगलौर में कार्यशाला और प्रदर्शनियों का क्रम जारी है। उन्होंने गाजियाबाद में कला उत्सव का राष्ट्रीय सिलसिला २००४ से आरम्भ किया है। और २००७ में 'कला धाम' का निर्माण किया।

दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी डा. लाल रत्नाकर के कला संसार की पूरी दुनिया है। यही वह आवादी है जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. लाल रत्नाकर के चित्रों में महिलाओं की ये विशेषताएँ मुखरता से उभर कर आती हैं। उनके पात्र प्रमुख रूप से ग्रामीण आंचल से लिये गए हैं।
दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी डा. लाल रत्नाकर के कला संसार की पूरी दुनिया है। यही वह आबादी है जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है और संस्कारों का पोषण करती रही है। कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है, यह सब लाल रत्नाकर की कलाकृतियों में मुखरता से उभर कर आता है। उनके पात्र प्रमुख रूप से ग्रामीण आंचल से लिये गए हैं। हालाँकि पुरुषों का चित्रांकन उन्होंने बहुत कम किया है पर जहाँ कहीं वे उनकी तूलिका से आकार लेते हैं संपूर्ण भारतीय ग्रामीण वैभव के साथ प्रदर्शित होते हैं।
उनके पात्र मेहनतकश वर्ग के हैं। उनके पहनावे उनके आभूषण और उनके उपयोग की वस्तुएँ सभी को डॉ रत्नाकर कलात्मक संवेदना के साथ प्रस्तुत करते हैं। तोते और बैलों और घोड़ों का वे विभिन्न रंगों में सजीव चित्रण करते हैं। चक्की लाठी घड़े, पहिये, हल आदि उनके चित्रों में आकर्षक रूप में स्थान पाते हैं। उनके रंग चटकीले हैं, जो उत्सवी रौनक छोड़ते हैं  और दर्शकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस विषय में वे कहते हैं- "जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं, मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते हैं यथा लाल पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं।"

सोमवार, 21 मार्च 2011

आधी आबादी और मेरे चित्र

डा. लाल रत्नाकर

दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है.

यही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन षेश आधी आबादी यानी पुरूशों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूॅं सच कहूॅ तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं. 
बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.

नारीजाति की तरंगे-

मेरे चित्रों की ‘नारीजाति की तरंगे’ शीर्षक से इन दिनों एक चित्र प्रदर्शनी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक चलेेंगी, प्रदर्शनी प्रातः 11 बजे से सायं 7 बजे तक खुली रहती है। 
इस चित्र प्रदर्षनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्रदर्शित किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्रयत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत ही सरल होता है. आप मान सकते हैं कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियों को ही अपने चित्रों में प्रमुख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मुझे नारी सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है कहीं कहंी के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृजन की प्रक्रिया वाधित नहीं होती वैसे तो प्रकृति, पशु, पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूश कभी कभार बन ही जाते हैं. परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.
मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृश्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मुझे प्रेरणा प्रदान करती हैं।
मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कुछ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद्भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्रयास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभूषण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्रलोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो लेकिन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र महिलाएं भी मेरे चित्रों में सुसंगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।

जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होतेे हैं यथा लाल पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .
इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं।
आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दुनिया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृद्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्तन एक अलग दुनिया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलुप्त हो जाए।

सहज है वेशकीमती कलाकृतियां समाज या आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्रोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सुन सुन कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कुछ विशेष प्रकार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ी है।

मंगलवार, 1 मार्च 2011

सहारनपुर यात्रा-

सहारनपुर के जे वी जैन महिला महाविद्यालय में बाह्य परीक्षक के रूप में जाना हुआ 
जहां चित्रकला की विभागाध्यक्ष डॉ मधु जैन थीं।


उन दिनों विश्वविद्यालय में चित्रकला को लेकर कुछ सुधार पाठ्यक्रम में किए गए थे जब प्रैक्टिकल वर्क के लिए वाह्य परीक्षक को पूरी परीक्षा में रहना था आमतौर पर इससे पहले वाह्य परीक्षक अंतिम दिन आता था और नंबर देकर चला जाता था।

विश्वविद्यालय में कई बड़े परिवर्तन हो रहे थे जिसमें एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ था कि चित्रकला विषय को मूल चूल रूप से परिवर्तित कर दिया गया था और और अब तक के 60 और 40 के रेशियो को बदलकर 20 और 80 पर ला दिया गया था यानी 20 नंबर का प्रैक्टिकल और 80 नंबर की थ्योरी। चौधरी चरण विश्वविद्यालय के सभी महाविद्यालय में इस बात को लेकर बहुत आक्रोश था कि जिन लोगों ने इस तरह की व्यवस्था की थी वह कलाकार सत्यानाश करना चाहते थे। 

इस आंदोलन में मैं भी बढ़कर भाग लिया था और विश्वविद्यालय के कुलपति उन दिनों डॉ  ओझा साहब हुआ करते थे जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से आए थे हमारा एक डेलिगेशन उनसे मिला और उन्होंने उसे कमेटी को फिर से गठित किया जिसमें मुझे भी रखा गया। 

इस कमेटी के द्वारा हम लोगों ने पाठ्यक्रम को ललित कला विभागों की तरह समृद्ध करने की कोशिश की जिसका एक पक्ष यह भी था की परीक्षा को ठीक से कराया जाए और विद्यार्थियों के हुनर का मूल्यांकन सही हो।
अब सवाल यह था कि ऐसे परीक्षक कहां से ले जाएं जो इतने समय तक महाविद्यालयों में रहकर यह कार्य कर सकें। इस समस्या से सभी महाविद्यालय जूझ रहे थे और भरपूर विरोध के साथ-साथ अनदेखी भी कर रहे थे। 
मुझे लगा कि मुझे अवसर मिला है तो मैं इसको प्रायोगिक तौर पर पूरा करता हूं इसलिए मैं इस बात पर तैयार हुआ कि मैं परीक्षा के पूरे दोनों सहारनपुर ही रहूंगा वहां की विभाग अध्यक्ष को बहुत समस्या हुई कि मैं कहां रुकूंगा कैसे चार दिनों तक यह सिलसिला चलता रहेगा। 

मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि आप इसकी चिंता ना करें मैं अपनी व्यवस्था कर लूंगा।
हालांकि हमारे वरिष्ठ साथी जो बी एच यू के ही प्रोडक्ट थे डॉ राम शब्द सिंह उनके साथ रख सकता था लेकिन मैं और इंतजाम किया और स्वतंत्र रूप से सहारनपुर में चार दिन रहा और महाविद्यालय जाकर विद्यार्थियों की परीक्षा में सहयोग करता रहा। 

इस बीच कई घटनाएं घटी जिनका जिक्र यहां जरूरी नहीं है।
उसी समय के यह चित्र है -


इस बीच कई घटनाएं घटी जिनका जिक्र यहां जरूरी नहीं है।
जबकि सच्चाई यह है की उच्च शिक्षा के लेबल को किसी भी कालेज में मेन्टेन ही नहीं किया जाता रहा है। 

उत्तर प्रदेश में कला शिक्षा 
(पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में)

डॉ लाल रत्नाकर

                         उत्तर प्रदेश में कला शिक्षा पर बात की जाय इससे पहले हमें राष्ट्रीय तल पर कलाओं की दशा दिशा को समझना आवश्यक होगा, जिससे हम कला की शिक्षा की प्रासांगिकता और उसके शैक्षिक स्वरुप पर भी प्रकाश डाल पाएंगे, अब आवश्यक ये है की कला की शिक्षा का इतिहास देखा जाय या आज की कला शिक्षा। .......... 

                   इसीलिए पहले हमें भारतीय कलाओं के क्रमिक विकास के परिदृश्य को समझना होगा, जैसा कि सर्वज्ञात है कि सदियों से कला जगत का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। अतः जब भी किसी तरह के विकास की बात होगी और उनमें कला के विकास अवधारणओं की चर्चा हो या नहो फिर भी कलाओं की उपस्थिति तो अनिवार्य होगी ऐसे में भारत के सम्पूर्ण कला विकास को नजरअंदाज करना बेमानी ही होगा। यहां यह नहीं कहा जा सकता कि कलाओं के वर्गीकरण के पूर्व जो कलात्मकता आज इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है वह सहज आ जाती रही होगी अपितु उसके ज्ञान को देने की प्रविधियों को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। कलाओं के समय समय की प्रगति एवं अवरोध इस प्रभावी भावना के निष्पादन में कालचक्र का अपना महत्व होता है अतएव इसमें उनकी दुरूहता जितनी भी आड़े आयी हो उससे उसकी रचना प्रक्रिया के कौशल को कमतर करके देखना हो सकता है आज प्रासांगिक न हो पर इसके रचना के कौशल ने कभी अपने को समाप्त नहीं होने दिया है, ज्ञान के इस अद्भुत स्वरूप पर मनीषियों की दृष्टि सम्भव है बहस को स्थान दिया हो पर रचना प्रक्रिया की जटिलता को जिन रचनाकारों ने गौरवशाली बनाया वास्तव में वास्तविक योगदान उनका है। 

                    उत्तरोत्तर नकारात्मक रवैये को यदि त्यागते हुए वैश्विक कला इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह तथ्य करीने से प्रमाणित होते हैं कि धर्म समाज और राज्य कला विकास की प्रक्रिया को जितना प्रभावित करते हैं उससे कहीं ज्यादा रचनाकार का कौशल। विज्ञान, साहित्य एवं परम्पराएं जब जब धर्म और समाज के पक्ष और प्रतिपक्ष में आती हैं तो उदारता अनुदारता अनिवार्य रूप से कलाओं की रचनात्मकता को प्रभावित करती हैं। यहां शिक्षा का महत्वपूर्ण स्वरूप भी सहज ही सम्मुख आता है जब हम भारतीय शिक्षा व्यवस्था के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं। इस अप्राकृतिक प्रक्रिया के चलते मौलिक प्रक्रिया के विस्तार की वजाय प्रतिरूपण और अलंकारिकता के वैभव का ही विस्तारित कला का स्वरूप ही अधिक प्रचलित हो पाया, यही कारण है कि कलाएं सामाजिक स्वरूप में स्वीकार्य तो रहीं पर उतनी विकसित न हो पाने का कारण कहीं न कहीं असमानता और मानसिक दिवालियेपन की कहानी कहती नजर आती हैं। यदि यह सब व्यवस्थित और उनमुक्त मौलिकता की स्थिति में होता तो भारतीय कला का गौरवशाली स्वरूप इतिहास के ही नहीं वर्तमान में भी दुनिया को दिशा देता। 

                     इतिहास के गर्भ में पल रहे भारत का कला वैभव विखरा पड़ा है, ठीक उसी तरह जैसे यहां का सामाजिक स्वरूप। जब भी हम इसका विस्तार और निरपेक्ष अध्ययन करेंगे तो अनोखा सच सम्मुख आएगा। इन्हीं विविधताओं को समेटे यहां का गौरवशाली समाज सदियों की मानसिक गुलामी एवं बदहाली में डूबा यह महान रचनाकार अपनी सीमाओं में सिमटा, देश की अनन्य बाधाओं, हमलों, लूट-खसोट और अराजकताओं के मध्य जो कुछ कर पाया वह यहां के साम्राज्यों मठाधीशों की जागिर के रूप में महफूज है। वह अपनी कहानी इतिहास के पन्नों की जुबानी भले ही वयां न कर पाया हो पर किसी न किसी रूप में उसकी दशा पर जिक्र आ ही जाता है यथा ताजमहल जैसी विश्वविख्यात रचनाकार के हाथों के कलम कर दिये जाने के उद्धरण भी मौजूद हैं। यहां भी कलाकार की वास्तविक दशा के रूप में निश्चित तौर पर जो यातना जाहिर हो रही है कमोवेश यही दशा आज तक बनी हुई है। अतः भारत अपनी कलाओं के विविध स्वरूपों की वजह से अपनी पहचान बनाने में सम्पूर्ण संसार में कामयाब जरूर हो रहा है, पर उसके निहितार्थ अलग हैं। यही कारण है कि दुनिया के विविध देशों में भारतीय कलाएं आज चर्चा में ही नहीं उनकी मांग भी बनी हुई हैं पर यदि इनके समग्र विकास की प्रतिबद्धता भी पारदर्शी होती तो कुछ और बात होती। हो सकता है कि यह उल्लेख कष्टकारी और अव्यवहारिक लगे जो अपने आप में उक्त तथ्यों को ही बल प्रदान करेगा आज नहीं तो कल।    
  
                   फिर भी इतिहास बताता है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और उनमें में जितनी विधाएं यशस्वी हुई हैं, उनमें ललित कलाओं का महत्वपूर्ण स्थान एवं योगदान रहा है। भारत का हर युग अपने समय में किसी न किसी रूप में कलाओं को समेटे हुए है, यहां पर समुचित रूप से देखा जाय तो निश्चित रूप से कलाओं से पटा पड़ा है। पर दुखद है कि जितना   ध्यान जाना था वह सम्भवतः नहीं जा पाया है। वैसे तो भारत के गौरवशाली इतिहास में यह उल्लेख है कि समय समय पर इन विधाओं पर ध्यान रहा है, जिसके कारण कलाओं की स्थिति विविध संकटों के समय में भी कुछ न कुछ नूतन ही प्राप्त किया है। यही कारण है कि भारतीय समाज के सांस्कृतिक परिवेश में व्यक्ति को साहित्य, संगीत  और कलाओं के बिना पशुवत रूप में देखा जाता रहा हो वहां कला की महत्ता स्वतः समृद्ध हो जाती है, यथा उसे प्रमाणित करते हुए ये पंक्तियां उक्त अवधारणा को पुख्ता ही करती हैं- 

            साहित्य संगीत कला विहिनः। साक्षात् पशु पुक्छ विषाण हीनः।। 

                    यही कारण है कि भारतीय मानस कला रूपों को अपने जीवन के हर हिस्से में आभूषण के समान सजोकर रखा है शिलाखण्डों से लेकर देह तक का उपयोग इसके लिए किया गया है, भारतीय मानस का यही कला प्रेम विविध रूपों में प्रस्फुटित हुआ है, गीत संगीत नृत्य चित्र मूर्ति एवं स्थापत्य आदि में तथा दैनिक उपयोग की विविध सामग्रियां जिनमें आभूषणादि के अतिरिक्त नाना प्रकार के उपयोगिता की सामाग्रियों के अलंकारिक संसाधनों में ये विविध कला रूप प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि लोक और विशिष्ट में कला अभिप्रायों की तमाम समता दृष्टिगोचर होती है। जिसको कालान्तर में पुनः नवीनतम तरीके से सामंजस्य के साथ प्रयुक्त किया गया है। यहां प्रयुक्त कलात्मकता की विवेचना भी महत्व की है, जिसमें कालान्तर में बहुत परिवर्तन देखने को मिला है, यहां पर यह महत्वपूर्ण है कि जिन कलारूपों की रचना समाज को प्रतिविम्बित करती थी वह धीरे धीरे विलुप्त हो रही है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि सामाजिक पहचान में भी कलाएं बहुत सहयोगी थीं जो चुपचाप अपना काम करती रहती थीं। 

                    इन कला रूपों के निर्माण की प्रक्रिया में कला शिक्षा की प्रक्रिया पर गौर करें तो अधिकांश में परम्परागत गुरू-शिष्य या पारिवारिक परम्परा में यह कलाएं आगे बढ़ीं जिससे सांस्कृतिक सम्पन्नता आयीं जिसे हम अपने भारतीय समाज के विविध जातीय कार्यों के पेशेवर विविधता के रूप में भी देख पाते हैं। यही इनके सीखने के केन्द्र रहे हैं जो इन्हें परम्परा से पीढ़ी दर पीढ़ी इसके सम्पन्न स्वरूप प्रदान करते आए हैं। जितने भी उदाहरण मिलते हैं सबमें इन्हीं परम्परागत रूप से दी जाने वाली शिक्षा आज भी महत्वपूर्ण है। इसीलिए गुरू शिष्य परम्परा या घरानों के रूप में जिन्हें इसका सम्मान मिला वे इस विधा और ज्ञान के प्रसार में निश्चित रूप से समर्पित लोग थे। जिन्हें उनके कौशल की वजह से ही जाना गया। यही कारण है कि वो आज भी उन्हीं महत्वपूर्ण रूपों मे मौजूद है। 

                   इस परम्परा को आगे बढ़ाने और परवान चढ़ाने में जो कलाकार आगे आए उन्होने पीछे मुड़कर नहीं देखा, यथा कला के नये आयाम, नए प्रतिमान, नये मायने और नवीन तकनिकियों की खोजकर उनका भरपूर प्रयोग किए। यही कारण है कि समकालीन कला अपने विविध स्वरूपों में नजर आनी प्रारम्भ हुई। अब कला के मायने केवल और केवल पुरातन अर्थ समेटे रूपाकार न रहकर विविध अवस्थाओं व्यवस्थाओं को चिन्हित कर उनपर कलाकृतियों का सृजन हुआ। बृहत्तता और सूक्षमता का सामंजस्य एक साथ सामने आया, वसुदेव कुटुम्बकम की अवधारणा बलवती हुयी। चिन्तन की दिशा बदली, विषय बदले, माध्यम बदले। यही कारण है कि गुरू-शिष्य कहीं न कहीं मन्द पड़ी स्वतन्त्र विचारों का प्रसफुटन होना प्रारम्भ हुआ जिससे पारिवारिक परम्परा भी कमजोर हुई। यही कला कालान्तर में समकालीन कला के रूप में प्रतिस्थापित हुई और उसके कलाकारों ने समकालीन विचारों को लेकर विविध तकनीकियों का उपयोग कर एक नयी धारा की शुरूआत हुई है।

                    कालान्तर में इनके चलते अनेक तरह बदलाव के साथ नवीन परिवर्तनों ने विभिन्न प्रकार के माध्यमों को भी आजमाया और इनके विभिन्न शिक्षण केन्द्रों में भी इस नए बदलाव की शुरूआत हुई। जो विभिन्न स्कूलों के रूप में सामने आए विशेषकर ब्रिटिश शासन काल में जिन पश्चिमोन्मुखी कला शिक्षण की शिक्षा को प्रारम्भ किया गया उनमें पारंगतता के उपरान्त भी केवल कला की पराधीनता की जिस विधा को भारतीय कला के स्थानापन्न करने के लिए जिन अनेक स्कूलों की स्थापना हुई थी वहीं धीरे धीरे नवीन अवधारणा ने जगह बनाई। उनकी उपस्थिति आज हमारे सम्मुख जिस रूप में है वह कितनी सुखद है उसका मूल्यांकन अलग तरह से किया जाना चाहिए। पर इनकी प्रासांगिकता तत्कालीन दौर में जो भी रही हो पर आज उनका स्वरूप काफी बदल गया है। जबकि संगीत और नृत्य के अनेक घराने आज भी अपनी महत्ता कायम किए हुए हैं। 

                    क्योंकि कला शास्त्रों से बहुुत पहले की चीज है अतः कलाओं की मूल्य दृष्टि एवं मानवीय उपयोगिता का सवाल हमेशा सृजन की संभावनाओं को स्थान प्रदान करता है, यही कारण है कि रचनाओं की विविधता का शास्त्रीय स्वरूप तय किए जाने के बाद भी वह उन नियमों को तोड़ती रही हैं। ‘‘रचनात्मकता का संबन्ध साक्षर या शिक्षित होने से जरा भी नहीं। सांस्कृतिक दृष्टि से नितांन्त असंस्कृत महाकवि र्भृहरि के पात्र,’’ बहुत से शिक्षितों के हाल सब जानते हैं।’’ 

                    कलाओं की मूल्य दृष्टि-हेमन्त शेष की पुस्तक उद्धृत यह अंश कला शिक्षा के स्वरूप को परिलक्षित करता है अब सवाल यह है कि कला आन्दोलनों की स्थिति को कला शिक्षा से कैसे जोड़ा जाय, यही भारतीय कला आन्दोलन की प्रासांगिकता को चिन्हित कराने में सहायक होगा जबकि समकालीन कलाकारों की सूची में जिन नामों को शरीक किया गया है उनपर सवाल उठेगे कि उनके मानदण्ड क्या हैं ? उनको समझने के लिए कला के विकास की अवधारणाओं को समझना होगा जिनकी वजह से कला में बदलाव उत्पन्न हुए। 

                   अब तक कि कला प्रक्रिया में 1947 के प्रोग्रेसिव ग्रुप में-के0 एच0 आरा, एस0 के0 भाकरे, एम0 एफ0 हुसेन, एच0 ए0 गैडे, एस0 एच0 रजा, एस0 एन0 सूजा जिन छह कलाकारों को प्रोग्रेसिव ग्रुप में सुमार किया जाता है वह जिन विशेषताओं की वजह से जाने जाते हैं। परन्तु प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप का 1956 में विभाजन और स्वाभाविक रूप से दूर हुए फीका, समूह के कलाकारों को अपनी व्यक्तिगत शैली बनाने में व्यस्त थे. पीएजी के साथ जुड़े कलाकारों की सूची में लगभग सभी महत्वपूर्ण कलाकार लगभग 1950 में बंबई में काम कर रहे कलाकारों को भी शामिल किया जा सकता है। छह संस्थापक सदस्यों के अलावा, जुड़े कलाकारों मंे निम्न कलाकारों के नाम भी समिमलित हैं-वी.एस. गायतोंडे, कृष्ण खन्ना, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, राम कुमार, बाल छाबड़ा के बीच भरोसा कर सकते हैं। यह प्रगतिशील समूह है, जो नए प्रतिभा को कोकून के बाहर उभरने में मदद किया था। कुछ तत्कालीन दौर के भारतीय कलाकारों की पीढ़ी जो पहले के कलाकारों ने जो उनके लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए उनकी अभिव्यक्ति के विविध प्रतिभाओं के मालिक है और भारतीय समकालीन कला के उन्नायक भी।   
     
                 आज कई ज्ञात अज्ञात भारतीय कलाकारों की व्यक्तिगत शैली है जिसे वे सक्षम करने में एवं आगे ले जाने में लगे हैं, और यह समाज में स्वीकृति प्राप्त करने के लिए निरन्तर यत्न कर रहे हैं। समकालीन कला आन्दोलन को आगे ले जाने में जिन कलाकारों ने अपना योगदान बेनामी या गुमनामी में किया है वह भी इस आन्दोलन के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं। 

                वर्तमान दौर का कलाकार उनसे दूर तो हुआ है परन्तु कलामूल्यों को लेकर नहीं, जबकि नयी पीढ़ी के दौर में रचना प्रक्रिया के तौर तरीकांे ने कई नये आयाम कला को दिए हैं जिनमें स्थान विशेष का जिक्र किया जाना उतना महत्व का नहीं है जितना उनकी प्रक्रियाओं का यह कार्य कमोवेश देश के हर हिस्से में हुआ है। जिनकी वजह से भारतीय कला ने अपनी उपस्थिति कायम की है। 

              वहीं दूसरी ओर जहां बड़े संस्थानों के कलाकार अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे और जिनसे ऐसा नहीं हुआ दोनो के अलग ग्रुपों ने कला जगत में अपनी छाप छोड़ी है उसका मूल्यांकन कब होगा इसकी घोषणा करना संभव नहीं है जब समकालीन व्यवस्था इन कलाओं के भविष्य से आंख मूंद लेती है तब कलाओं के पतन का दौर आरम्भ हो जाता है। 

              आगे समकालीन कला और कला शिक्षा पर नजर डालने पर कई तत्व सामने आते हैं जिनका उल्लेख यहां करना वाजिब होगा। आजादी के पूर्व और उसके उपरान्त जिस तरह से विविध क्षेत्रों में बदलाव शुरू हुए उनमें कला का स्थान भी महत्व का रहा है राष्ट्र्ीय कला अकादमी की स्थापना, विभिन्न विश्वविद्यालयों में कला शिक्षण की सुविधा तथा अनेक कला महाविद्यालयों की स्थापना। 

              इस बीच की कला उपलब्धियां और उनका मूल्यांकन किया जाय तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आते हैं। उन मनिषियों ने जिन्होंने भारतीय कला तत्वों एवं तकनीकी ज्ञान की स्थाई स्थापना के अध्ययन की नींव डाली होगी। परन्तु आज ये संस्थान उस समय की आकल्पित उक्त अवधारणा के उन स्वरूपों में जिस उत्थान की परि कल्पना की गयी थी उसका स्वरूप क्या हो गया है वह विचारणीय है।  उनकी अवधारणओं का जो प्रस्फुटन हुआ वह उन विकासशील स्वरूपों में न होकर जिन स्वरूपों में हुआ है वह किसी भी तरह भारतीय कला का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यहां विशेषकर बंगाल, बड़ौदा और मुंम्बई को लिया जा सकता है। परन्तु थोक में जिन कला प्रक्रिया को अनेक महाविद्यालयों में अपनाया जा रहा है, जिनकी दशा दिशा को समझने के लिए अनेक कला शिक्षण संस्थानों का नाम लिया जा सकता है। 

              इनके अतिरिक्त आधुनिक कला के बहाने समकालीन दौर की कला प्रक्रियाओं से विमुख अनेक शिक्षण संस्थानों की स्थिति तो और भी सोचनीय है। जिस तरह इनके शिक्षण साम्राज्य स्थापित हुए उनके कर्णधारों ने कला को नहीं किसी और विन्दु को महत्वपूर्ण करके जिस अ-कला को ही बढ़ाया गया  है। यह भयावह दौर कला की इस वर्तमान स्थिति को इस स्थिति तक लाने में निश्चित तौर पर एक जटिल प्रक्रिया के अधीन आकर या होकर जहां तक पहुंचा है उसके अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं। जिसके प्रभावी या अ-प्रभावी प्रभाव का मूल्यांकन कब होगा, कहना कठिन है। इसके और भी कारण हैं जिनमें विभिन्न प्राथमिक विद्यालयों की जटिल कला शिक्षा व्यवस्था या यूं कहें कि व्यवसायिक अवस्था के कारण मौलिक पद्धतियों की वजाय निहायत व्यवसायिक आधार ने जो कमजोर आधार खड़ा किए हैं वह शैक्षिक प्रक्रिया को प्रभावित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यदि हम इसका अध्ययन निम्न विन्दुओं के आधर पर करें तो जो परिणाम सामने आएंगे उन्ही से सच्चाई का आकलन किया जा सकता है। यथा-  विद्यार्थी,शिक्षक,पाठ्यक्रम,क्लास,स्ंासाधन,परीक्षा प्रणाली एवं व्यवस्थागत मानसिकता का मूल्यांकन किया जाना आज की समकालीन कला के स्वरूप को स्पष्ट करता है। 

             जिनका मतलब सीधे सीधे कलाओं को दयनीय बनाकर अपनी चेरी बनाना मात्र रह गया है। यही कारण है कि इस तरह के संस्थान कलाओं की वजाय कलाओं की अनुकृति कराने के केन्द्र मात्र बनकर रह गए हैं। यही नहीं अब तो इनकी यही व्यवस्था गुरूशिष्य की परम्परा बन गयी है। इनके उदाहरण हमें अनेक कला शिक्षकों के रोने धोने में दिखाई ही दे जाता है यथा आजकल के बच्चों के पास वक्त ही नहीं है क्लास में ही नहीं आते हैं, गांव के बच्चे न जिनके पास सामग्री होती है और न ही उन्हें समझ, उनके गार्जियन भी ऐसे हैं, इसलिए पाठ्यक्रम ऐसा रखिए जिससे काम आसानी से निकल जाए। और आश्चर्य जनक यथार्थ से रूबरू होना पड़ा है इस कला शिक्षा के जिम्मेदार शिक्षक होने का अरमान रखने के कारण। यहां उस यथार्थ की वानगी - स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर के कल शिक्षण की आवश्यक सुविधाओं पर नजर डालें तो उनका कोई मानदण्ड लिखित रूप में कहीं उपलब्ध नहीं है, पर प्रयोगात्मक कक्षाओं की सामान्य व्यवस्था अनेक उन्नत कला महाविद्यालयों तक में उपलब्ध नहीं है जो अपने आप में एक बड़ी विडम्बना है। 
          
              यदि इनके विस्तार की बात की जाए तो उत्तरोत्तर उन प्रवृत्तियों को ही बढ़ावा मिल रहा है जिसमें कला मूल्यों एवं उनकी मौलिकताओं का अभाव है। इनके स्पष्ट कारण जो दिखाई दे रहे हैं उनमें कला की शिक्षण संस्थाएं, उपयुक्त संसाधन और निपुड़ ज्ञानदाताओं की अनुपलब्धता भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। इनसे भी महत्वपूर्ण यह है कि कलाकार बनने के लिए शिक्षा ग्रहण कर रहे शिक्षार्थी जो हैं वह या तो डिग्री के लिए अच्छे अंक पाने के लिए किसी न किसी प्रकार अपने कोर्स पूरे करते हैं। जबकि वे सब कलाकार के पाकर नौकरी के लिए। इसके विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जितने कलाकार इन क्षेत्रों में दिखाई देने चाहिए थे वास्तविकता उनसे परे हैं। जो इस प्रकार के कलाकार हैं वह सतह पर कितने नजर आते हैं उन परिक्षेत्रों में जहां पर कला के ऐसे संस्थान हैं। अनेक कला महाविद्यालयों में इन स्थितियों से भिन्नता दिखाई तो देती है। 
              यही कारण है कि जिस स्थान पर कला को होना चाहिए था आज वहां नहीं है। इन्ही कारणों से आज की कला शिक्षा में जिन मूल्यों की प्रतिस्थापना होनी चाहिए थी कहीं न कहीं उनका संकट उपस्थित है। पर नित नए संस्थान जन्म ले रहे हैं जहां केवल और केवल यह हो रहा है कि शिक्षण प्रशिक्षण की कला का विकास तो हो रहा होगा पर कला के शिक्षण प्रशिक्षण की कला मूल्यों एवं उनकी मौलिकताओं का अभाव है यही कारण है कि सारी प्रक्रियाएं ठहरी हुयी सी प्रतीत हो रही हैं। हो सकता है कल कोई कला जिज्ञासु आए और इनको झकझोरने की कोशिस करे। फिर इनकी नींद टूटे और कला सृजन की संभावनाओं की भी इन्हे भी चिन्ता हो जो केवल और केवल नौकरियों वाली कला शिक्षा, उपाधियां उपलब्धियों की जगह ले ली हैं ।



लेखक का परिचय 
अध्यक्ष 
असोसिएट प्रोफ़ेसर 
चित्रकला विभाग , एम्.एम्.एच.कालेज  गाजियाबाद
(चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से सम्बद्ध)